श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
सामान्यतया जिन लोगों को ब्रह्मपद प्राप्त हो गया वे भी अपने जीवन और मृत्यु के चक्र से बचा नहीं सकते। जैसे मृत व्यक्ति के पेट में पीड़ा नहीं होती अथवा जैसे जागने पर कोई स्वप्नदृष्ट बाढ़ में नहीं डूब सकता, वैसे ही जो लोग मेरे स्वरूप में आ पहुँचते हैं वे संसार में कभी लिप्त नहीं होते। व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर जो ब्रह्मभुवन इस नाम-रूपात्मक संसार का मस्तक है, जो चिरस्थायी गुणों में अत्यन्त श्रेष्ठ है और लोकरूपी पर्वत का सर्वोच्च शिखर है, जिस ब्रह्मभुवन का एक पहर दिन चढ़ने तक एक इन्द्र की आयुष्य भी नहीं टिकती और जिसका एक दिन पूरा होने में चौदह इन्द्रों की पंक्ति क्रमशः उदित होकर अन्त में अस्त हो जाती है[1],
चतुर्युगों की सहस्र चौकड़ियाँ व्यतीत होने पर जिस ब्रह्म-भुवन का एक दिन होता है और इसी प्रकार की और भी एक सहस्र चौकड़ियाँ व्यतीत होने पर जिसकी एक रात होती है और जहाँ के दिन-रात का मान इस प्रकार का है, उस ब्रह्मभुवन में पदार्पण करने वाले सौभाग्यशाली व्यक्ति कभी भी मृत्यु का वरण नहीं करते और वे स्वर्ग में चिरंजीवी होकर सब कुछ देखते रहते हैं। वहाँ साधारण देवताओं के विषय में भला क्या कहा जाय! और-तो-और सारे देवताओं के स्वामी जो इन्द्र हैं, स्वयं उनकी वहाँ क्या दशा होती है। चौदह-चौदह इन्द्र एक ही दिन में आते और चले जाते हैं। परन्तु ब्रह्मा के आठों पहरों वाले दिन को जो स्वयं अपने नेत्रों से देखते हैं, वे ही ‘अहोरात्रविद्’ कहलाते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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