श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
उस ब्रह्मभुवन में जिस समय दिन निकलता है, उस समय ऐसे निराकार ब्रह्म का, जिसकी गिनती भी नहीं की जा सकती, यह नाम-रूप वाला व्यक्त विश्व बनता है। जिस समय उस ब्रह्मभुवन के दिन के चारों प्रहर निकल जाते हैं, उस समय इस नाम-रूप वाले विश्व का पूर्णतया विनाश होने लगता है; फिर जिस समय उस ब्रह्मभुवन का ऊषाकाल होता है, उस समय इस विश्व का पुनर्निर्माण होने लगता है। जैसे शरद्-ऋतु के आते ही समस्त मेघ आकाश में ही अदृश्य हो जाते हैं, और फिर ग्रीष्म-ऋतु के समाप्त होते ही जैसे वे फिर उसी आकाश में उत्पन्न होकर दृष्टिगोचर होने लगते हैं, वैसे ही ब्रह्मा के दिन के आरम्भ में इस भूत-सृष्टि का उदय होता है और जब तक उस दिवस की हजार युग चौकड़ियों की गिनती पूरी नहीं हो जाती, तब तक इस सृष्टि-समुदाय की सत्ता बनी रहती है। फिर जब ब्रह्मा की रात्रि का समय आता है, तब इस व्यक्त विश्व का उस अव्यक्त ब्रह्म में विलय हो जाता है। ब्रह्मा का यह रात्रिकाल भी हजार युग चौकड़ियों का ही है। जिस समय उस रात्रिकाल का अवसान हो जाता है, उस समय फिर पूर्व की भाँति नाम-रूप वाले जगत् की सृष्टि होने लगती है परन्तु इन सब बातों के कहने का आशय क्या है? इसका आशय यही है कि इस ब्रह्मभुवन के एक दिवस में जगत् का उदय और एक ही रात्रि में जगत् का प्रलय होता है। हे धनुर्धर! इस ब्रह्मभुवन का विस्तार इतना व्यापक है कि उसमें सम्पूर्ण सृष्टि का बीज सन्निहित है, परन्तु इस ब्रह्मभुवन को भी अन्त में जन्म और मृत्यु के चंगुल में पड़ना ही पड़ता हैं। हे पार्थ! वास्तविकता तो यह है कि उस ब्रह्मा के नगर का यह विश्वरूपी हाट दिवस होते ही लग जाता है और जब रात्रि का समय आता है, तब यह हाट अपने-आप उठ जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि यह अपने आदि बीज में ही जाकर समा जाता है और उसी के साथ मिलकर एक रूप हो जाता है। जैसे वृक्ष का भी विलय अन्ततः बीज में ही होता है अथवा जैसे गगन में मेघ का अवसान होता है, ठीक वैसे ही अनेकत्व का भेद-भाव जिस स्थिति में एक रूप होकर समा जाता है, उसी स्थिति को ‘साम्य’ कहते हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (160-169)
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