ज्ञानेश्वरी पृ. 183

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥40॥

इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-“हे पार्थ! जिसकी आस्था मोक्ष-सुख के विषय में होती है, भला उसकी मोक्ष के अलावा और कौन-सी गति हो सकती है? किन्तु ऐसी दशा में एक बात होती है। वह यह है कि उसे बीच में ही रुककर विकल होना पड़ता है। परन्तु उस विकलता में भी ऐसा सुख है जो देवों को भी शीघ्र प्राप्त नहीं होता। किन्तु वही व्यक्ति यदि अभ्यास के मार्ग में वैसे ही चलता चला जाता, जैसे उसने शुरू में उस मार्ग पर चलने के लिये कदम बढ़ाया था, तो निःसन्देह ही आयुष्य सूर्य के डूबने से पहले ही ‘सोऽहम्’ सिद्धि के स्थान तक अवश्य ही जा पहुँचता। परन्तु उसमें इतना ज्यादा वेग नहीं होता, इसलिये उसका बीच में ही कुछ रुकना स्वाभाविक है। लेकिन इतना होने पर भी अन्त में उसे मोक्ष तो मिलना ही मिलना है।[1]


प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा: ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥41॥

ऐसे व्यक्ति के विषय में एक और भी विलक्षण बात सुनो। जिन लोकों को पाने के लिये इन्द्र को भी बहुत-से कष्ट झेलने पड़ते हैं, वे समस्त लोक मोक्ष चाहने वाले को बिना परिश्रम के ही आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। फिर उन लोकों में जो नित्य रहने वाले और अलौकिक भोग होते हैं, उन भोगों को भोगते-भोगते वे लोग ऊब जाते हैं। उन भोगों को भोगते समय उनके मन में पश्चात्ताप होता होगा और वे कहते होंगे कि हे भगवन्त! यह कहाँ का बखेड़ा तुमने हमारे पीछे खड़ा कर दिया। तदनन्तर वे फिर संसार में जन्म लेते हैं। किन्तु उनका जन्म बहुत ही धर्मशील कुल में होता है। जैसे ठीक ढंग से तैयार की गयी धान्य की फसल में लम्बी-लम्बी बालें निकलती हैं, वैसे ही वे भी ऐश्वर्यरूपी धान्य की बालों के सदृश बहुत तेजी से बढ़ते हैं। वह अनवरत नीति मार्ग का अनुसरण करते हैं, सत्य बोलते हैं, शास्त्र की दृष्टि से ही हर एक चीज को देखते हैं, वेद को ही अपना जीवन्त देवता मानते हैं, स्वधर्म का ही व्यवहार करते हैं तथा सारासार विचार को ही अपना सलाहकार बनाते हैं। उनके कुल में ईश्वर-चिन्तन के सिवा कोई और चिन्तन होता ही नहीं, ऐसे कुल में चिंता ईश्वर की पतिव्रता स्त्री बनी है और वे अपने कुलदेव को ही सारी सम्पत्ति समझते हैं। इस प्रकार वे योगभ्रष्ट पुरुष आत्मपुण्य का उचित फल प्राप्त करके और अनेक प्रकार के सुखों की बढ़ती हुई सम्पत्ति भोगते हुए उस जन्म में सुखी होते हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (437-440)
  2. (441-448)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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