ज्ञानेश्वरी पृ. 182

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस: ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥37॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि ॥38॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत: ।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥39॥

परन्तु हे स्वामी! मेरे चित्त में एक संशय उत्पन्न हुआ है। उसका समाधान करने की सामर्थ्य आपके अलावा और किसी में नहीं है। इसीलिये, हे श्रीगोविन्द! आप मेरे उस संशय का निवारण करें। मान लीजिये कि कोई व्यक्ति योगसाधना का उपाय तो नहीं जानता, पर फिर भी वह अत्यधिक श्रद्धा से मोक्षपद पाने की चेष्टा करता है। वह इन्द्रियरूपी ग्राम से निकलकर आत्मसिद्धिरूपी दूसरे नगर तक पहुँचने के लिये आस्था वाले मार्ग का अनुसरण करता है। किन्तु उसे आत्मसिद्धि भी नहीं मिलती और वह पलटकर भी नहीं आ सकता। इस प्रकार वह बीच में ही पड़ा रह जाता है और इसी बीच में उसका आयुरूपी सूर्य अस्त हो जाता है। जैसे असमय में बादल का छोटा-सा मामूली टुकड़ा बीच में आ तो जाता है, पर न तो वह टिकता ही है और न ही बरसता है, वैसे ही वह व्यक्ति भी दोनों ही चीजों से पृथक् हो जाता है। इसका कारण यह है कि उसके लिये आत्मसिद्धि मिलनी तो दूर ही रहती है और अपने श्रद्धा-सामर्थ्य से वह जिन ऐन्द्रिक सुखों का त्याग करता है, उनसे भी वह हाथ धो बैठता है। इस प्रकार वह श्रद्धा के चक्कर में पड़कर दोनों ओर से जाता है। ऐसे व्यक्ति की क्या गति होती है।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (430-436)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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