श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
परन्तु हे स्वामी! मेरे चित्त में एक संशय उत्पन्न हुआ है। उसका समाधान करने की सामर्थ्य आपके अलावा और किसी में नहीं है। इसीलिये, हे श्रीगोविन्द! आप मेरे उस संशय का निवारण करें। मान लीजिये कि कोई व्यक्ति योगसाधना का उपाय तो नहीं जानता, पर फिर भी वह अत्यधिक श्रद्धा से मोक्षपद पाने की चेष्टा करता है। वह इन्द्रियरूपी ग्राम से निकलकर आत्मसिद्धिरूपी दूसरे नगर तक पहुँचने के लिये आस्था वाले मार्ग का अनुसरण करता है। किन्तु उसे आत्मसिद्धि भी नहीं मिलती और वह पलटकर भी नहीं आ सकता। इस प्रकार वह बीच में ही पड़ा रह जाता है और इसी बीच में उसका आयुरूपी सूर्य अस्त हो जाता है। जैसे असमय में बादल का छोटा-सा मामूली टुकड़ा बीच में आ तो जाता है, पर न तो वह टिकता ही है और न ही बरसता है, वैसे ही वह व्यक्ति भी दोनों ही चीजों से पृथक् हो जाता है। इसका कारण यह है कि उसके लिये आत्मसिद्धि मिलनी तो दूर ही रहती है और अपने श्रद्धा-सामर्थ्य से वह जिन ऐन्द्रिक सुखों का त्याग करता है, उनसे भी वह हाथ धो बैठता है। इस प्रकार वह श्रद्धा के चक्कर में पड़कर दोनों ओर से जाता है। ऐसे व्यक्ति की क्या गति होती है।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (430-436)
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