श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-“हे पार्थ! तुम्हारी सारी बातें सत्य हैं। इस मन का स्वभाव सचमुच चपल ही है। परन्तु फिर भी यदि वैराग्य का सहारा लेकर इसे योगाभ्यास के मार्ग पर नियुक्त किया जाय तो कुछ ही काल में यह भी स्थिर हो जायगा। क्योंकि इस मन की एक अच्छी आदत यह है कि इसे जिस चीज का रस मिल जाता है, फिर उसी का इसे चस्का लग जाता है। इसीलिये इसे कुतूहल से आत्मसुख का चस्का लगाना चाहिये।[1]
यह बात मैं मानता हूँ कि सामान्यतः जो विरक्त नहीं होते और जो कभी अभ्यास की चेष्टा नहीं करते, वे इस मन को अपने अधीन नहीं कर सकते। पर यदि हम कभी यम-नियम के रास्ते पर चले ही न हों, कभी हमने वैराग्य का स्मरण भी न किया हो और हम केवल विषयरूपी जल में निरन्तर डुबकी ही लगाते रहें तथा इस मन का कभी निग्रह न करें तो फिर भला यह मन क्यों और कैसे स्थिर होने लगा? इसीलिये तुम सर्वप्रथम ऐसे उपायों का श्रीगणेश करो, जिनके द्वारा मनोनिग्रह हो सकता हो और फिर देखो कि यह मन कैसे तुम्हारे अधीन नहीं होता। यदि तुम यह बतलाने की चेष्टा करो कि मन कभी वशीभूत हो ही नहीं सकता, तो क्या योग के जितने साधन बतलाये गये हैं, वे सब झूठे ही हैं? परन्तु वे सारे साधन तो झूठे हैं नहीं; इसलिये तुम ज्यादा-से-ज्यादा यही कह सकते हो कि मुझसे अभ्यास नहीं होता। यदि व्यक्ति में योग की शक्ति आ जाय तो फिर उसके समक्ष मन की चपलता क्या है? क्या उस शक्ति से समस्त महत्तत्त्व इत्यादि मनुष्य के वशीभूत नहीं हो जाते”? इस पर अर्जुन ने कहा-“ठीक है, हे देव! आपके सारे कथन ठीक हैं। सचमुच योग शक्ति के समक्ष मन की सामर्थ्य एकदम नहीं टिक सकती। परन्तु इतने दिनों तक मुझे यह मालूम नहीं था कि इस योग का किस प्रकार साधन करना चाहिये; इसीलिये मैं अब तक मन के वशीभूत हूँ। हे पुरुषोत्तम! इस पूरे जीवन में केवल आपकी कृपा से मुझे इस योग का परिचय हुआ है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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