श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
हे पार्थ! सामान्यतः जो लोग सर्वथा मूर्ख (अज्ञानी) होते हैं, वे ज्ञानयोग और कर्मयोग की व्यवस्था भला कैसे समझ सकते हैं? वे अपने स्वाभाविक अज्ञान के कारण इन दोनों को एक-दूसरे से पृथक् समझते हैं। पर यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो क्या कभी अलग-अलग दीपकों के प्रकाश में कोई अन्तर दृष्टिगोचर होता है? जिन्होंने एक ही मार्ग का आचरण करके स्वानुभव से आत्मरूप का तत्त्व भली-भाँति समझ लिया है, वे संन्यास और योग-इन दोनों में कोई अन्तर नहीं मानते।[1]
जो बात सांख्य-साधन अथवा ज्ञान मार्ग से प्राप्त होती है, वही बात योगसाधन से भी मिल जाती है और इसीलिये वे दोनों एकरूप ही होते हैं। जैसे आकाश और अवकाश का भेद नहीं हो सकता, ठीक वैसे ही योग और संन्यास के ऐक्य के विषय में भी जानना चाहिये। जिसे संन्यास और योग का भेदरहित ज्ञान हो, उसी के विषय में यह जानना चाहिये कि उसे सच्चा प्रकाश मिला हुआ है और उसी ने ही आत्मस्वरूप को भी पहचाना है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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