ज्ञानेश्वरी पृ. 127

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


साङ्‌ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: ।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥4॥

हे पार्थ! सामान्यतः जो लोग सर्वथा मूर्ख (अज्ञानी) होते हैं, वे ज्ञानयोग और कर्मयोग की व्यवस्था भला कैसे समझ सकते हैं? वे अपने स्वाभाविक अज्ञान के कारण इन दोनों को एक-दूसरे से पृथक् समझते हैं। पर यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो क्या कभी अलग-अलग दीपकों के प्रकाश में कोई अन्तर दृष्टिगोचर होता है? जिन्होंने एक ही मार्ग का आचरण करके स्वानुभव से आत्मरूप का तत्त्व भली-भाँति समझ लिया है, वे संन्यास और योग-इन दोनों में कोई अन्तर नहीं मानते।[1]


यत्साङ्‌ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‌ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति ॥5॥

जो बात सांख्य-साधन अथवा ज्ञान मार्ग से प्राप्त होती है, वही बात योगसाधन से भी मिल जाती है और इसीलिये वे दोनों एकरूप ही होते हैं। जैसे आकाश और अवकाश का भेद नहीं हो सकता, ठीक वैसे ही योग और संन्यास के ऐक्य के विषय में भी जानना चाहिये। जिसे संन्यास और योग का भेदरहित ज्ञान हो, उसी के विषय में यह जानना चाहिये कि उसे सच्चा प्रकाश मिला हुआ है और उसी ने ही आत्मस्वरूप को भी पहचाना है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (26-28)
  2. (29-31)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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