श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
जो हाथ से निकली हुई वस्तु को याद करके दुःखी नहीं होता अथवा जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा नहीं रखता, जिसका अन्तर्मन मेरुगिरि की भाँति स्थिर रहता है, जिसके अन्तःकरण में ‘मैं’ ‘मेरा’ आदि की भावनाएँ लेशमात्र भी नहीं रहतीं, हे पार्थ! उसी मनुष्य को नित्य संन्यासी जानना चाहिये। जो मनुष्य इस अवस्था में पहुँच जाता है, उस मनुष्य के लिये कर्मसंग कभी बाधक नहीं होता और वह निरन्तर अक्षुण्ण सुख प्राप्त करता है। ऐसे नित्य संन्यासी को घर-बार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वह मनुष्य संगहीन रहकर यह बात ठीक तरह से जानता रहता है कि इन सब सांसारिक प्रपंचों के साथ मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं हैं। देखो, जिस समय आग बुझ जाती है, उस समय केवल राख-ही-राख बची रहती है। फिर वह राख बत्ती बनाते समय रूई के साथ रखी जा सकती है अर्थात् रूई में राख रखी जाय तो भी कुछ नहीं होता। इसी प्रकार संसार की उपाधियों में रहते हुए भी संकल्प-विकल्प की आँच जिसकी बुद्धि को नहीं लगती, वह कभी भी कर्म के बन्धनों में नहीं पड़ता। इसीलिये जिस समय संकल्प-विकल्प बन्द हो जाते हैं, उसी समय संन्यास की प्राप्ति होती है। इसीलिये कर्म-संन्यास और कर्मयोग दोनों साथ-ही-साथ चलने वाले हैं। अर्थात् फल की दृष्टि से दोनों एक ही हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (19-25)
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