ज्ञानेश्वरी पृ. 126

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥3॥

जो हाथ से निकली हुई वस्तु को याद करके दुःखी नहीं होता अथवा जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा नहीं रखता, जिसका अन्तर्मन मेरुगिरि की भाँति स्थिर रहता है, जिसके अन्तःकरण में ‘मैं’ ‘मेरा’ आदि की भावनाएँ लेशमात्र भी नहीं रहतीं, हे पार्थ! उसी मनुष्य को नित्य संन्यासी जानना चाहिये। जो मनुष्य इस अवस्था में पहुँच जाता है, उस मनुष्य के लिये कर्मसंग कभी बाधक नहीं होता और वह निरन्तर अक्षुण्ण सुख प्राप्त करता है। ऐसे नित्य संन्यासी को घर-बार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वह मनुष्य संगहीन रहकर यह बात ठीक तरह से जानता रहता है कि इन सब सांसारिक प्रपंचों के साथ मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं हैं। देखो, जिस समय आग बुझ जाती है, उस समय केवल राख-ही-राख बची रहती है। फिर वह राख बत्ती बनाते समय रूई के साथ रखी जा सकती है अर्थात् रूई में राख रखी जाय तो भी कुछ नहीं होता। इसी प्रकार संसार की उपाधियों में रहते हुए भी संकल्प-विकल्प की आँच जिसकी बुद्धि को नहीं लगती, वह कभी भी कर्म के बन्धनों में नहीं पड़ता। इसीलिये जिस समय संकल्प-विकल्प बन्द हो जाते हैं, उसी समय संन्यास की प्राप्ति होती है। इसीलिये कर्म-संन्यास और कर्मयोग दोनों साथ-ही-साथ चलने वाले हैं। अर्थात् फल की दृष्टि से दोनों एक ही हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (19-25)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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