ज्ञानेश्वरी पृ. 128

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


सन्न्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत: ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥6॥

हे पार्थ! जो मनुष्य कर्मयोग के मार्ग से मोक्षरूपी पर्वत पर चढ़ता है, वह अविलम्ब महासुख के शिखर पर पहुँच जाता है। किन्तु जो योगसाधन का आश्रय नहीं लेते वे वृथा खटपट करते रहते हैं और उन्हें कभी सच्चा संन्यास नहीं मिलता।[1]


योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥7॥

जो लोग माया और मोह से अपने मन को हटाकर एकदम अलग-थलग कर लेते हैं और गुरु के उपदेश से अपने मन का सारा मल धोकर शुद्ध कर डालते हैं तथा उसे बड़ी दृढ़ता से आत्मस्वरूप में अच्छी तरह से स्थापित कर देते हैं और जैसे लवण जब तक समुद्र में नहीं पड़ता, तब तक तो वह समुद्र से भिन्न और आकार की दृष्टि से उसके समक्ष बहुत ही तुच्छ जान पड़ता है, पर जब वही लवण समुद्र में घुलकर उसके साथ एक-जीव हो जाता है, तब वह भी समुद्र की ही भाँति व्यापक और अनन्त हो जाता है, वैसे ही जिसका मन संकल्प-विकल्पों से निकलकर चैतन्य में मिल जाता है और उसके साथ समरस हो जाता है, वह मनुष्य यद्यपि देखने में देश-काल की दृष्टि से अन्यान्य लोगों की तरह एक देश में स्थित जान पड़ता है, तो भी वह अपने आत्मस्वरूप से तीनों लोकों को आच्छादित कर लेता है अर्थात् ऐसे मनुष्य के विषय में ‘कर्ता’, ‘कर्म’ और इसी तरह की अन्य बातों का सहज में अन्त हो जाता है और तब वह चाहे सब कर्मों को करता ही क्यों न रहे, तो भी वह सदा अकर्ता ही रहता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (32-33)
  2. (34-37)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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