श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
हे पार्थ! जो मनुष्य कर्मयोग के मार्ग से मोक्षरूपी पर्वत पर चढ़ता है, वह अविलम्ब महासुख के शिखर पर पहुँच जाता है। किन्तु जो योगसाधन का आश्रय नहीं लेते वे वृथा खटपट करते रहते हैं और उन्हें कभी सच्चा संन्यास नहीं मिलता।[1]
जो लोग माया और मोह से अपने मन को हटाकर एकदम अलग-थलग कर लेते हैं और गुरु के उपदेश से अपने मन का सारा मल धोकर शुद्ध कर डालते हैं तथा उसे बड़ी दृढ़ता से आत्मस्वरूप में अच्छी तरह से स्थापित कर देते हैं और जैसे लवण जब तक समुद्र में नहीं पड़ता, तब तक तो वह समुद्र से भिन्न और आकार की दृष्टि से उसके समक्ष बहुत ही तुच्छ जान पड़ता है, पर जब वही लवण समुद्र में घुलकर उसके साथ एक-जीव हो जाता है, तब वह भी समुद्र की ही भाँति व्यापक और अनन्त हो जाता है, वैसे ही जिसका मन संकल्प-विकल्पों से निकलकर चैतन्य में मिल जाता है और उसके साथ समरस हो जाता है, वह मनुष्य यद्यपि देखने में देश-काल की दृष्टि से अन्यान्य लोगों की तरह एक देश में स्थित जान पड़ता है, तो भी वह अपने आत्मस्वरूप से तीनों लोकों को आच्छादित कर लेता है अर्थात् ऐसे मनुष्य के विषय में ‘कर्ता’, ‘कर्म’ और इसी तरह की अन्य बातों का सहज में अन्त हो जाता है और तब वह चाहे सब कर्मों को करता ही क्यों न रहे, तो भी वह सदा अकर्ता ही रहता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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