ज्ञानेश्वरी पृ. 109

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता: ।
ज्ञानग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: ॥19॥

जिस मनुष्य को कर्मों के आचरण के विषय में किसी भी प्रकार का कोई विषाद-तिरस्कार नहीं होता, परन्तु साथ-ही-साथ जिसमें कर्मफलासक्ति भी नहीं होती और जिसके मन में ऐसे संकल्प-विकल्प नहीं होते कि मैं यह कर्म करूँगा अथवा यह आरम्भ किया हुआ कर्म पूर्ण करूँगा और जो ज्ञानाग्नि में अपने सारे कर्मों को स्वाहा कर चुका होता है, उस मनुष्य को तुम साक्षात् परब्रह्म ही समझो।[1]


त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय: ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति स: ॥20॥

जो शरीर के विषय में उदासीन रहता है तथा कर्मों के फल के विषय में इच्छारहित रहता है, फलाकांक्षा नहीं रखता और सर्वदा आनन्दित रहता है, हे धनुर्धर! जो संतोष के मध्य गृह में भोजन करने बैठता है और आत्मबोधरूपी भोजन कितना ही परोसा जाय, फिर भी जो कभी नहीं अघाता।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (103-105)
  2. (106-107)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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