श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
जिस मनुष्य को कर्मों के आचरण के विषय में किसी भी प्रकार का कोई विषाद-तिरस्कार नहीं होता, परन्तु साथ-ही-साथ जिसमें कर्मफलासक्ति भी नहीं होती और जिसके मन में ऐसे संकल्प-विकल्प नहीं होते कि मैं यह कर्म करूँगा अथवा यह आरम्भ किया हुआ कर्म पूर्ण करूँगा और जो ज्ञानाग्नि में अपने सारे कर्मों को स्वाहा कर चुका होता है, उस मनुष्य को तुम साक्षात् परब्रह्म ही समझो।[1]
जो शरीर के विषय में उदासीन रहता है तथा कर्मों के फल के विषय में इच्छारहित रहता है, फलाकांक्षा नहीं रखता और सर्वदा आनन्दित रहता है, हे धनुर्धर! जो संतोष के मध्य गृह में भोजन करने बैठता है और आत्मबोधरूपी भोजन कितना ही परोसा जाय, फिर भी जो कभी नहीं अघाता।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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