श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
जो मनुष्य सब कर्मों को करता हुआ भी इस तत्त्व को अच्छी तहर से जानता है कि मैं निष्कर्मा हूँ, जो कर्म-संग होने पर भी फल की आशा नहीं रखता और जो केवल कर्तव्य-बुद्धि के अलावा और किसी कारण से कर्म नहीं करता, उसके विषय में जान लेना चाहिये कि उसमें यह निष्कर्मता का भाव अच्छी तरह समाहित हुआ है। इसलिये जो मनुष्य अपने सारे कर्म जैसी स्थिति हो, उसी के अनुसार करता रहे, उसी को उपर्युक्त लक्षणों से युक्त ज्ञानी जानना चाहिये। जैसे जल के सन्निकट खड़ा हुआ मनुष्य जल में अपनी प्रतिच्छाया देखता है और यह अच्छी तरह से समझता है कि मैं इस जल में की प्रतिच्छाया नहीं हूँ, बल्कि इससे बिल्कुल भिन्न ही हूँ अथवा जैसे नौका-विहार करने वाला मनुष्य नदी के तट पर स्थित वृक्षों को बड़े वेग से दौड़ते हुए देखता है और जब वह ठीक तरह से विचार करता है, तब कहता है कि ये सब वृक्ष अपने-अपने जगह पर ही स्थिर हैं, वैसे ही जो यह जानता है कि मेरे कर्मों का आचरण आत्मस्वरूप की दृष्टि से एकदम मिथ्या है और अपना मूल स्वरूप पहचान लेता है, वही सच्चा निष्कर्मा है। जैसे उदय और अस्त की बाधाओं के बावजूद सूर्य अविचलरूप से भम्रण करता रहता है, वैसे ही इस प्रकार का मनुष्य समस्त कर्मों का आचरण करता हुआ भी अपनी निष्कर्मता चंचलरहित ही रखता है। वह देखने में तो मनुष्य के सदृश ही जान पड़ता है, जैसे पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब दीखता है, लेकिन प्रत्यक्ष वह बिम्ब उसमें डूबा हुआ नहीं है, उसी प्रकार वह सामान्य मनुष्य-जैसा दीखता है, लेकिन उस मनुष्य की तहर नहीं होता, यानी उसमें सामान्य मनुष्य-जैसे गुणधर्म नहीं होते। ऐसा निष्कर्मा मनुष्य न देखते हुए भी विश्व को देखता है, कुछ नहीं करते हुए भी सारी क्रियाओं को करता है और सब प्रकार की भोग्य-वस्तुओं का भोग न करते हुए भी भोग भोगता है, पर फिर भी वह इन समस्त क्रियाओं से सदा निर्लिप्त ही रहता है। वास्तव में वह तो एक ही स्थान पर बैठा रहता है, पर फिर भी वह सारे संसार में चारों ओर चक्कर काटता रहता है; बल्कि यह कहना चाहिये कि वह स्वयं ही विश्वरूप हो जाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (93-102)
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