ज्ञानेश्वरी पृ. 108

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥18॥

जो मनुष्य सब कर्मों को करता हुआ भी इस तत्त्व को अच्छी तहर से जानता है कि मैं निष्कर्मा हूँ, जो कर्म-संग होने पर भी फल की आशा नहीं रखता और जो केवल कर्तव्य-बुद्धि के अलावा और किसी कारण से कर्म नहीं करता, उसके विषय में जान लेना चाहिये कि उसमें यह निष्कर्मता का भाव अच्छी तरह समाहित हुआ है। इसलिये जो मनुष्य अपने सारे कर्म जैसी स्थिति हो, उसी के अनुसार करता रहे, उसी को उपर्युक्त लक्षणों से युक्त ज्ञानी जानना चाहिये। जैसे जल के सन्निकट खड़ा हुआ मनुष्य जल में अपनी प्रतिच्छाया देखता है और यह अच्छी तरह से समझता है कि मैं इस जल में की प्रतिच्छाया नहीं हूँ, बल्कि इससे बिल्कुल भिन्न ही हूँ अथवा जैसे नौका-विहार करने वाला मनुष्य नदी के तट पर स्थित वृक्षों को बड़े वेग से दौड़ते हुए देखता है और जब वह ठीक तरह से विचार करता है, तब कहता है कि ये सब वृक्ष अपने-अपने जगह पर ही स्थिर हैं, वैसे ही जो यह जानता है कि मेरे कर्मों का आचरण आत्मस्वरूप की दृष्टि से एकदम मिथ्या है और अपना मूल स्वरूप पहचान लेता है, वही सच्चा निष्कर्मा है। जैसे उदय और अस्त की बाधाओं के बावजूद सूर्य अविचलरूप से भम्रण करता रहता है, वैसे ही इस प्रकार का मनुष्य समस्त कर्मों का आचरण करता हुआ भी अपनी निष्कर्मता चंचलरहित ही रखता है। वह देखने में तो मनुष्य के सदृश ही जान पड़ता है, जैसे पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब दीखता है, लेकिन प्रत्यक्ष वह बिम्ब उसमें डूबा हुआ नहीं है, उसी प्रकार वह सामान्य मनुष्य-जैसा दीखता है, लेकिन उस मनुष्य की तहर नहीं होता, यानी उसमें सामान्य मनुष्य-जैसे गुणधर्म नहीं होते। ऐसा निष्कर्मा मनुष्य न देखते हुए भी विश्व को देखता है, कुछ नहीं करते हुए भी सारी क्रियाओं को करता है और सब प्रकार की भोग्य-वस्तुओं का भोग न करते हुए भी भोग भोगता है, पर फिर भी वह इन समस्त क्रियाओं से सदा निर्लिप्त ही रहता है। वास्तव में वह तो एक ही स्थान पर बैठा रहता है, पर फिर भी वह सारे संसार में चारों ओर चक्कर काटता रहता है; बल्कि यह कहना चाहिये कि वह स्वयं ही विश्वरूप हो जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (93-102)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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