श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
वह आत्मानंद की माधुरी का रसास्वादन दिनोंदिन बढ़ती रहने वाली रुचि के कारण अधिक लेता है। वह आशा का परित्याग कर देता है और उसे अहंकार के साथ निछावर करके छोड़ देता है। इसीलिये जिस समय उसे जो कुछ समयानुसार मिल जाता है, उसी पर वह सन्तोष करता है और ‘यह मेरा है और वह पराया है’-इस प्रकार की बात भी उसके पास नहीं आने पाती। वह मनुष्य दृष्टि से जो भी देखता है, वह दृश्य स्वयं बन जाता है और वह जो कुछ सुनता है, वह श्राव्य विषय वह स्वयं बना हुआ होता है। पैर से चलता है, मुँह से कुछ भी बोलता है, इस प्रकार जितने भी क्रिया-कलाप (व्यवहार) उससे होते हैं, वे सब कुछ अंगरूप से वह स्वयं बना हुआ है अर्थात् सम्पूर्ण विश्व उसके लिये आत्मरूप होता है। फिर भला ऐसे मनुष्य के लिये कौन-सा कर्म कब बाधक हो सकता है? जिस द्वैतभाव से मत्सर उत्पन्न होता है, वह द्वैतभाव जिस मनुष्य में रह ही नहीं जाता, उसके विषय में यह कहने की जरूरत ही नहीं रहती कि वह निर्मत्सर है, कारण कि उसके सम्बन्ध में यह बात स्वतः सिद्ध ही होती है। इसीलिये ऐसा मनुष्य सर्वथा मुक्त ही रहता है और इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि वह सब प्रकार के कर्म करने पर भी अकर्मा ही रहता है। वह देखने में तो सगुण जान पड़ता है, पर वास्तव में निगुर्ण ही रहता है अर्थात् गुणातीत रहता है, इसमें संशय नहीं है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (108-144)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |