गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पूर्वाभास
सांख्य-शास्त्र तथा वेदान्त-शास्त्र का तुलनात्मक विवेचन करके “कर्म” के विषय में जो उपदेश अध्याय 5 तक किया है वह इस प्रकार हैः- (1) अध्याय 2 के श्लोक 47 में “कर्म” को जन्मसिद्ध अधिकार बताकर श्लोक 48 में उस जन्माधिकार को आसक्ति विरहित करने का उपदेश दिया है। (2) अध्याय 3 के श्लोक 5 में कर्म को प्रधानता देते हुए उसके महत्त्व को समझाया है कि कर्म किए बिना कोई एक क्षण भी नहीं रह सकता। शास्त्रोक्त करणीय कर्म अवश्य करने चाहिए। स्वयं का उदाहरण देकर यह समझाया है कि कर्म तो स्वयं परमब्रह्म परमात्मा को भी करने पड़ते हैं। (3) अध्याय 4 में श्लोक 24 से 32 तक यज्ञ व यज्ञार्थ कर्मों का विवेचन करके शास्त्र विधानोक्त कर्मों के महत्त्व को समझाया है लोक संग्रह सिद्धान्त प्रतिपादित कर श्लोक 7 में यह समझाया है कि लोक संग्रह रक्षार्थ ही समय-समय पर ईश्वर को भी अवतार लेना पड़ता है; लोकसंग्रह हितार्थ ही गुण-भेद के अनुसार कर्म-भेद करके चतुर्वर्ण व्यवस्था निरूपित की गई है; और श्लोक 18 में कर्म करने का कौशल यह बताया है कि कर्म का बन्धकत्व गुण नष्ट करके कर्म को अकर्म में परिवर्तित कर देना चाहिए; यह क्रिया वैदिक-यज्ञों से, स्मार्त्त नित्य गृह-यज्ञों से, व्रत-उपवास-निराहार आदि कर्मों से, तथा पातंजलि योग की प्राणायाम व हठ-योग की क्रियाओं से सर्वश्रेष्ठ है। (4) अध्याय 5 में सांख्य शास्त्र के “कर्म-संन्यास” का तथा कर्म-योग-मार्ग के “आसक्ति-विरहित-कर्म-योग” का तुलनात्मक विवेचन कर यह समझाया है कि “कर्म-संन्यास” क्या होता है व कर्म-संन्यासी किसे कहना चाहिए। अध्याय 5 में वर्णित कर्म-योग-मार्ग का कर्म-संन्यासी ही ब्राह्मी-स्थिति को या जीवनमुक्तावस्थ को प्राप्त कर अपने जीवन काल में ही सुख में रहता है तथा मोक्ष पाता है। ब्राह्मी-स्थिति निःसंग तथा साम्य-बुद्धि से अनासक्ति-योग की साधना करने से प्राप्त होती है। इतना विवेचन समदर्शिता व साम्य-बुद्धि का करने के पश्चात अध्याय 6 साधनों का निरूपण किया है जिनकी आवश्यकता कर्म-योगी को निष्काम कर्म करने में अथवा ब्रह्म-निष्ठ होने में होती है। अतः संन्यास व संन्यासी की परिभाषा व अर्थ समझाते हुए अध्याय 6 का आरम्भ होता है और आत्म-संयम के विषय में यह समझाया है कि आत्म संयम क्या होता है और इसके करने के उपाय क्या हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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