गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
गीता अध्याय 2 श्लोक 40 में कर्म-प्रवाह के विषय में यह कह कर कि “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति” “अभिक्रम इसमें नष्ट न होता”-कर्म-प्रवाह की अखण्डता बताई है कि कर्म-प्रवाह कभी अवरूद्ध नहीं होता; कर्म-बीज का एक बार अध्यारोपण हो जाने के पश्चात् बीज-यप कर्म से निरन्तर अंकुर फूटते ही रहते हैं; कर्म-बीज प्रलय होने पर भी बना रहता है और जब सृष्टि निर्माण कार्य पुनः आरम्भ होता है तो बीज रूप कर्म से फिर अंकुर फूटने लगते हैं। अतः कर्म-शक्ति का कभी ह्रास नहीं होता। इस प्रकार कर्म-प्रवाह की अखण्डता बताकर अध्याय 3 श्लोक 10 में सृष्टि-रचना और कर्म का सह अस्तित्व होना[1] कहकर यज्ञरूपी कर्म-प्रवाह का अनादि होना तथा अनवरत रूप से चलते रहना सिद्ध किया है। मत्स्यावतार के संदर्भ में श्रीमद्भागवत व मत्स्य पुराण में कथा है कि सत्यव्रत नाम के राजर्षि को भगवान विष्णु ने “प्रलयकालिक जलराशि में त्रिलोकी के डूब जाने के समय समस्त औषधियों को और समस्त प्रकार के बीजों को तथा प्राणी मात्र के सूक्ष्म शरीरों को अपने साथ लेकर सप्तर्षियों के साथ नाव में बैठकर एकार्णव जलराशि में विचरण करने को कहा था। तथा इन औषधियों, बीजों, सूक्ष्म शरीरों व सप्तऋषियों की ब्राह्मी निशा तक रक्षा की थी।” इन समस्त प्रकार के बीजों में कर्म-बीज भी सुरक्षित रक्खा गया था जिसका सृष्टि-रचना काल में अंकुरित होना तथा प्रलय काल में नष्ट न होना अध्याय 2 श्लोक 40 में व अध्याय 10 में ऊपर वर्णन किया गया है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि सृष्टि-रचना का और कर्म का पारस्परिक सम्बन्ध सह अस्तित्व का है सृष्टि के साथ कर्म है और कर्म के साथ सृष्टि है। या यों कहिए कि यदि सृष्टि है तो कर्म है और यदि कर्म है तो सृष्टि है एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं। कर्म की व्याख्या इस प्रकार तत्त्ववेत्ताओं द्वारा की जाकर कर्म को क्रियमाण कर्म, संचित कर्म, प्रारब्ध आदि में विभक्त किया गया है। ऊपर दी गई महाभारत की कर्म-व्याख्या में क्रियमाण कर्म, संचित कर्म, तथा प्रारब्ध यह तीनों ही कर्म समाहित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सहयज्ञः प्रजाः स्रष्टा
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