गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
(1) क्रियमाण कर्मः- जो कर्म अभी वर्तमान समय में किए जा रहे हैं उनको “क्रियमाण कर्म” कहते हैं। वर्तमान में किए जाने वाले क्रियमाण कर्म संचित-कर्म अथवा प्रारब्ध के अनुसार व अनुकूल क्रियमाण होते हैं या किए जाते हैं। इन क्रियमाण कर्मों में संचित-कर्म या प्रारब्ध तो इनके करने का “कारण” होता है और क्रियमाण होना उसका “कार्य या फल” होता है क्योंकि जो भी कर्म वर्तमान में किया जाता है या किया जा रहा है वह “प्रारब्ध” का ही परिणाम होता है जिसके कारण कर्मों का भोगना शुरु होता है। यह क्रियमाण-कर्म प्रकृति गुणों के अनुसार सात्त्विक, राजस व तामस कर्म होते हैं; इनके करने में वही सात्त्विक, राजस व तामसी श्रद्धा होती है; और इनके करने का फल या परिणाम भी वही सात्त्विक, राजस या तामस होता है। प्रकृति के सत्त्व, रज, तम गुणों से अभिभूत होकर जो कर्म मन तथा इन्द्रियों द्वारा क्रियमण होते हैं उनका वर्गीकरण “कायिक, मानसिक तथा वाचिक कर्मों” में किया गया है। जो भी क्रिया-व्यापार कर्मेन्द्रियों[1] द्वारा किया जाता है वह “कायिक-कर्म” होता है। किसी क्रिया या व्यापार की इच्छा या भावना जब तक मन में ही रहती है और कमेन्द्रियों द्वारा कार्यरूप में परिणित नहीं होती तब तक वह “मानसिक-कर्म” रहता है किन्तु कर्मेन्द्रियों द्वारा कार्य-रूप में किए जाने पर वही मानसिक-कर्म “कायिक-कर्म” हो जाता है। जिह्वेन्द्रिय द्वारा किसी भी भावना, बात या शब्द का उच्चारण करना बोलना या कहना “वाचिक-कर्म” कहलाता है। जैसे मानसिक-कर्म कर्मेन्द्रियों द्वारा कार्य-रूप में परिणित होकर कायिक-कर्म बन जाता है वाचिक कर्म भी जिनेन्द्रिय द्वारा जब तक उच्चरित होता तब वह मानसिक-कर्म ही रहता है मुँह से निकलते ही शब्द, वचन या भाषण “वाचिक-कर्म” हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात् शरीर
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