गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 302

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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(1) क्रियमाण कर्मः-

जो कर्म अभी वर्तमान समय में किए जा रहे हैं उनको “क्रियमाण कर्म” कहते हैं। वर्तमान में किए जाने वाले क्रियमाण कर्म संचित-कर्म अथवा प्रारब्ध के अनुसार व अनुकूल क्रियमाण होते हैं या किए जाते हैं। इन क्रियमाण कर्मों में संचित-कर्म या प्रारब्ध तो इनके करने का “कारण” होता है और क्रियमाण होना उसका “कार्य या फल” होता है क्योंकि जो भी कर्म वर्तमान में किया जाता है या किया जा रहा है वह “प्रारब्ध” का ही परिणाम होता है जिसके कारण कर्मों का भोगना शुरु होता है।

यह क्रियमाण-कर्म प्रकृति गुणों के अनुसार सात्त्विक, राजस व तामस कर्म होते हैं; इनके करने में वही सात्त्विक, राजस व तामसी श्रद्धा होती है; और इनके करने का फल या परिणाम भी वही सात्त्विक, राजस या तामस होता है। प्रकृति के सत्त्व, रज, तम गुणों से अभिभूत होकर जो कर्म मन तथा इन्द्रियों द्वारा क्रियमण होते हैं उनका वर्गीकरण “कायिक, मानसिक तथा वाचिक कर्मों” में किया गया है।

जो भी क्रिया-व्यापार कर्मेन्द्रियों[1] द्वारा किया जाता है वह “कायिक-कर्म” होता है। किसी क्रिया या व्यापार की इच्छा या भावना जब तक मन में ही रहती है और कमेन्द्रियों द्वारा कार्यरूप में परिणित नहीं होती तब तक वह “मानसिक-कर्म” रहता है किन्तु कर्मेन्द्रियों द्वारा कार्य-रूप में किए जाने पर वही मानसिक-कर्म “कायिक-कर्म” हो जाता है। जिह्वेन्द्रिय द्वारा किसी भी भावना, बात या शब्द का उच्चारण करना बोलना या कहना “वाचिक-कर्म” कहलाता है। जैसे मानसिक-कर्म कर्मेन्द्रियों द्वारा कार्य-रूप में परिणित होकर कायिक-कर्म बन जाता है वाचिक कर्म भी जिनेन्द्रिय द्वारा जब तक उच्चरित होता तब वह मानसिक-कर्म ही रहता है मुँह से निकलते ही शब्द, वचन या भाषण “वाचिक-कर्म” हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात् शरीर

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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