गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
स्मार्त्त-कर्मः- स्मार्त-कर्म वर्णाश्रम-कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों का निरूपण वर्ण-भेद के अनुसार स्मृति-ग्रन्थों में किया गया है। मन्वादि स्मृतिकारों ने वर्ण व्यवस्था पर “नित्य-गृह-यज्ञों” का वर्णन किया है जो पंचमहायज्ञ कहलाते हैं। यह नित्य-गृह-यज्ञ यह हैं - (1) वेदाध्ययन ब्रह्म-यज्ञ माना गया है; (2) तर्पण आदि करना पितृ-यज्ञ; (3) हवन होम आदि देव-यज्ञ; (4) नर-बलि या पशु-बलि को भूत-यज्ञ कहा है और (5) अतिथि-सत्कार को मनुष्य-यज्ञ कहा है। इन नित्य-गृह-यज्ञों से हिंसात्मक विचारधारा का ह्रास[1] होकर अहिंसात्मक विचारधारा प्रबल होती है और यज्ञों में पशु-वध या नर-वध के स्थान में काम-क्रोधादि पाशविक वृत्ति का हवन संयम रूप अग्नि में करना उत्तम व श्रेष्ठ माना गया है। इन नित्य-गृह-यज्ञों में देवताओं, पितरों, ऋषियों, अतिथियों तथा अन्य प्राणियों को पहले संतुष्ट करने का तथा इसके पश्चात् जो अन्न व भोजन बच रहे उसे गृहस्थ अपने काम में ले, ऐसा विधान रक्खा गया है। इस प्रकार स्मार्त्त कर्मों में भी वैदिक यज्ञार्थ कर्मों के समान परोपकार व लोकहित की भावना है। इसी अध्याय 3 के श्लोक 10 से 16 में जो यज्ञ-वर्णन है वह इन्हीं स्मार्त्त पंचमहायागों का वर्णन है जिन्हें “देव-यज्ञ” कहा है; और पाशविक वृत्ति को संयमाग्नि में होम देने का उपदेश श्लोक 34, 35, 40 व 41 में दिया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्षय
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