गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 299

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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पौराणिक या धार्मिक-कर्मः-

महर्षि व्यासादि प्रणीत धर्म-ग्रन्थों में व्रत, उपवास, निराहार आदि को धर्म-रूप देकर “धार्मिक-कर्म” कहा है। इन पौराणिक कर्मों को

  1. नित्य;
  2. नैमित्तिक तथा
  3. काम्य कर्मों में विभक्त किया गया है जो इस प्रकार हैः-

(1) नित्य-कर्मः- प्रकृति के नियमानुसार खाने, पीने, स्वाँस लेने शौचादि करने के जो अनिवार्य तथा अपरिहार्य कर्म हैं जिनके न करने से हानि, अहित व पीडा हो वह नित्य-कर्म कहलाते हैं। इन नित्य-कर्मों का वर्णन अध्याय 3 के श्लोक 5 में; व अध्याय 5 के श्लोक 8 व 9 में किया है।

(2) नैमित्तिक-कर्मः- जो कर्म किसी कारण या निमित्त को लक्ष करके किए जाते हैं वह नैमित्तिक-कर्म होते हैं। इन कर्मों के करने के लिए किसी कारण या निमित्त का होना आवश्यक है जिससे प्रोत्साहित होकर कर्म करने में प्रवृत्ति होती है।

(3) काम्य-कर्मः- जो कर्म किसी फल, लाभ या अर्थसिद्धि की इच्छा, वासना या कामना से लिए जाते हैं वह काम्य-कर्म कहलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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