गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
पौराणिक या धार्मिक-कर्मः- महर्षि व्यासादि प्रणीत धर्म-ग्रन्थों में व्रत, उपवास, निराहार आदि को धर्म-रूप देकर “धार्मिक-कर्म” कहा है। इन पौराणिक कर्मों को
(1) नित्य-कर्मः- प्रकृति के नियमानुसार खाने, पीने, स्वाँस लेने शौचादि करने के जो अनिवार्य तथा अपरिहार्य कर्म हैं जिनके न करने से हानि, अहित व पीडा हो वह नित्य-कर्म कहलाते हैं। इन नित्य-कर्मों का वर्णन अध्याय 3 के श्लोक 5 में; व अध्याय 5 के श्लोक 8 व 9 में किया है। (2) नैमित्तिक-कर्मः- जो कर्म किसी कारण या निमित्त को लक्ष करके किए जाते हैं वह नैमित्तिक-कर्म होते हैं। इन कर्मों के करने के लिए किसी कारण या निमित्त का होना आवश्यक है जिससे प्रोत्साहित होकर कर्म करने में प्रवृत्ति होती है। (3) काम्य-कर्मः- जो कर्म किसी फल, लाभ या अर्थसिद्धि की इच्छा, वासना या कामना से लिए जाते हैं वह काम्य-कर्म कहलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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