गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
राजपूत काल सन् 648-1200 ई. - सन 648 ई. में वर्द्धन वंशी सम्राट हर्ष की मृत्यु के पश्चात् क्षत्रिय वर्ण शक्तिशाली हो गया। यह अपने को राजपूत कहते थे इस कारण इनका शासनकाल राजपूत युग कहलाता है। क्षत्रिय वंश के यह राजपूत परिहार, परमार, चालुक्य व चौहान थे जिन्होंने सन् 648 से 1200 ई. तक भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में राज्य किया। इस राजपूत जाति के उद्भव के विषय में ऐसा कहा जाता है कि :- यह जाति अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुई थी। इसका वर्णन पृथ्वीराज रासो में इस प्रकार किया गया है कि “परशुराम द्वारा जब सम्पूर्ण भारत क्षत्रिय विहीन कर दिया गया तो देश में राक्षसों का आतंक फैल गया राक्षसों द्वारा हत्यायें होने लगीं। उनके अत्याचारों से रक्षा करने वाला कोई नहीं रहा। राक्षसों के अत्याचारों से देवता व ब्राह्मण दुःखी हुए और आबू पर्वत पर जाकर ऋषियों की शरण ली। महर्षि वशिष्ठ ने एक यज्ञ किया और उस यज्ञाग्नि से चार महान योद्धाओं का जन्म हुआ। यह चार योद्धा परमार, चालुक्य, परिहार तथा चौहान थे।" यह वर्णन साहित्यिक है। इसका आन्तरिक अर्थ व तात्पर्य न समझकर इतिहासकारों ने इस वर्णन को कपोल कल्पित बताया है। किन्तु यह कपोल कल्पित नहीं सत्य है। 648 ई. से 1200 ई. तक 552 वर्ष के समय में भारत में आपसी लड़ाइयों के कारण आन्तरिक स्थिति को देखते हुए तथा हूण, अरब तथा गजनी के गौर आक्रमणों को और उनके अत्याचारों को देखते हुए भारत एक अग्निकुण्ड के समान ही था, जिसमें जगह-जगह मार-काट, लूट, अपहरण, अग्निकाण्ड आदि के पैशाचिक व राक्षसी काण्डों की ज्वाला प्रज्वलित हो रही थी। ऐसे समय में उत्तर भारत में परिहार, गढ़वाल, पाल व सैनवंश ही भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म तथा मातृभूमि की रक्षा करने वाले राजपूत थे जिन्होंने भारत-भूमि रूप अग्निकुण्ड से उत्पन्न होकर यवन आक्रमणकारियों का हवन उस कुण्ड में ही किया। राजपूतों की इस मातृभूमि व धर्म के प्रति त्याग व बलिदान की भावना के पीछे गोतोपदिष्ट भागवत-धर्म के कर्मवाद का, आत्मा की अमरता का, आत्मा व शरीर के परस्पर सम्बन्ध का, चातुर्यवर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षात्र-धर्म का, उपदेश काम कर रहा था जो समय-समय पर भर्तृमित्र, भर्तृहरि, कुमारिलभट्ट, धर्मकीर्ति, गौडपाद आचार्य, श्रीशंकराचार्य, श्रीब्रह्मदत्त आचार्य, श्रीसुरेश्वराचार्य, श्रीभट्ट भाष्कराचार्य, पुरुषोत्तमचार्य, यामुनाचार्य, वाचस्पति मिश्र आदि वेदान्ताचार्यों के उपदेशकों द्वारा पल्लवित व प्रस्फुटित हो रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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