गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
श्री भर्तृमित्र :- आचार्य भार्तृमित्र का प्रादुर्भाव छठी शती के अन्त में होना माना जाता है। कुमारिलभट्ट रचित श्लोक-वर्तिका में भर्तृ मित्र का उल्लेख मिलता है। श्री भर्तृहरि :- श्री भर्तृहरि ने “शब्दाद्वैतवाद” दार्शनिक ग्रन्थ लिखा। भर्तृहरि के दार्शनिक सिद्धान्त से मण्डनमिश्र जैसे वेदान्ताचार्य भी प्रभावित हुए तथा सोमानन्द आचार्य ने अपने “शिव दृष्टि” नाम ग्रन्थ में श्रीभर्तृहरि के शब्दाद्वैतवाद की आलोचना की है। बौद्ध-दार्शनिक शान्तरक्षित द्वारा लिखित “तत्त्व संग्रह” में तथा जयन्तभट्ट की “न्याय मंजरी” में शब्दाद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है। कुमालिलभट्ट ने भी भर्तृहरि की आलोचना की है, और कुमारिलभट्ट सातवीं सदी के मध्य में हुए थे। अतः श्रीभर्तृहरि का प्रादुर्भाव मण्डन मिश्र सोमानन्द, जयन्त व कुमारिल से पहले होना सिद्ध है। कुमारिल भट्ट:- कुमारिल भट्ट का प्रादुर्भाव 600 ई. के लगभग होना माना जाता है। यह अनुमान इस प्रसंग से लगाया जाता है, कि आचार्य धर्मकीर्ति 635 ई. में वेदाध्ययन करने हेतु कुमारिल भट्ट की सेवा में रहे थे। एक अन्य प्रसिद्धि यह भी है कि श्रीशंकराचार्य ने अपने भाष्य पर वर्तिका लिखने के लिये श्रीमिश्र से अनुरोध किया था किन्तु उस समय श्रीमिश्र ने तुषानल में भस्म होने की रक्षा की दीक्षा ले ली थी और उनका आधा अंग जल चुका था। श्रीशंकाराचार्य का आर्विर्भाव काल 684 ई. माना जाता है। बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिये कुमारिल भट्ट नालन्दा महाविहार में बौद्ध नैयायिक धर्मपाल के पास रहे। बुद्ध धर्म का अध्ययन करने के पश्चात् जब कुमारिल भट्ट उसी त्रुटियों को जान गये तो धर्मपाल से शास्त्रार्थ करके उसको परास्त किया और वैदिक धर्म की महारता व अखण्डता को सिद्ध किया। कुमारिल भट्ट के समय में ही ब्राह्मण वंशीय राजा सुधन्वा था। ब्राह्मण होते भी उसने जैन मत स्वीकार कर लिया था। श्रीभट्ट ने उस सुधन्वा राजा को पुनः वैदिक धर्म में परिवर्तित कर जैन मत की निःसारता को सिद्ध किया। श्रीकुमारिल भट्ट ने शबरस्वामी के मीमांसा-भाष्य पर टीका लिखी जिसके तीन भाग हैं। यह वर्तिका अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसमें अत्यन्त कुशलता से तर्क द्वारा वैदिक धर्म का मण्डन तथा अवैदिक धर्म का खण्डन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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