गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
ई. 500 से 647 ई. के 150 वर्ष के समय में वर्द्धन वंश शक्तिशाली रहा। इस वंश में हर्षवर्द्धन महान प्रतापी अन्तिम राजा हुआ, जिसने 606 ई. से 647 ई. तक राज्य किया। हर्ष के समय का परिचय बाणभट्ट के हर्ष चरित्र से तथा चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेखों से मिलता है जो 629 ई. में भारत आया था। इस चीनी यात्री के भारत विवरण से पता चलता है, कि बुद्ध धर्म के हीनयान और महायान दोनों पन्थों का परस्पर मेल होकर हीनयान महायान में सम्मिलित हो गया था। भागवत-धर्म अथवा हिन्दूधर्म उन्नति के शिखर पर था। जैन धर्म भी प्रचलित था। धार्मिक सम्मेलनों में बौद्ध, ब्राह्मण, जैन सभी एक साथ सम्मिलित होते थे, और आपस में सद्भावनापूर्ण अपनी-अपनी धार्मिक भावनाओं का हल वाद-विवाद द्वारा किया करते थे। यह धर्म-सम्मेलन हर्ष हर पाँचवें वर्ष प्रयाग में किया करता था। सम्राट हर्ष स्वयं बड़ा विद्वान पण्डित था, उसने संस्कृत में "रत्नावली, प्रियदर्शिका सथा नागानन्द" नाटक ग्रन्थ लिखे। उसके दरबार में हर्ष-चरित्र तथा कादम्बरी का रचयिता बाणभट्ट, तथा मयूर, हरिदत्त, जयसेन, मतंग, दिवाकर आदि विद्वान कवि तथा पण्डित थे। स्वयं विद्वान होने के कारण विद्वान आचार्यों से संसर्ग होने के कारण जैन, बौद्ध तथा भागवत-धर्म का अध्ययन करने के पश्चात् हर्ष इस निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि जैन व बुद्ध धर्म के मूल सिद्धान्त सनातनी भागवत-धर्म के ही सिद्धान्त हैं। केवल अन्धविश्वास तथा असहिष्णुता के कारण इन धर्मों में भेद व भिन्नता समझी जाने लगी है। ह्वेनसांग के भारत विवरण से भी यही तथ्य प्रमाणित होता है। प्रयाग आदि कुम्भों के धार्मिक सम्मलेन इसी अभिप्राय से बुलाये जाते थे, जिनमें आपसी वाद-विवाद द्वारा यही स्पष्टीकरण किया जाता था कि कर्म, आवागमन, विषय-वासनाओं का नाश, परिग्रह-परित्याग, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, आत्म संयम, शौच, अणुव्रत आदि जैनधर्म में व बौद्धधर्म में जो उपदिष्ट किये गये हैं, वह गीतोपदिष्ट भागवत धर्म से भिन्न नहीं है। गीता में वैदिक-धर्म के कर्म-काण्ड व ज्ञान-काण्ड का, उपनिषद, पुराण, व सांख्यशास्त्र के संन्यासमार्ग की ज्ञान निष्ठा आदि का समावेश है, तथा गीतोपदिष्ट भागवत-धर्म से कोई धर्म भिन्न नहीं है, न कोई हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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