गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1111

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 50 से 56 का भावार्थ।।

श्लोक 50 से 56 में भगवान् कृष्ण ने यह उपदिष्ट किया है कि स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्म निष्काम-बुद्धि ग्रहण करके करते रहने से मोक्ष मिलती है। श्लोक 50 में अर्जुन को यही समझाया है कि अन्तःकरण की शुद्धि तथा निष्काम कर्म करने की सिद्धि प्राप्त हो जाने पर जिस उपाय व विधि से मनुष्य को ज्ञान की परम-निष्ठा अर्थात ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त होती है वह संक्षेप में कहता हूँ उसे हे कौन्तेय! सुन। वह उपाय व विधि यह है कि-

श्लोक 51- जो मनुष्य शुद्ध बुद्धि से युक्त होकर अर्थात सात्त्विह बुद्धि, धैर्य व आत्म-संयम करके, इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि विषयों को त्यागकर तथा इनसे रहित होकर राग, द्वेष, मोह, प्रीति आदि द्वन्दों को दूर करः
श्लोक 52- एकान्त स्थान में रहकर, मिताहारी होकर; शरीर, मन, वचन को वश में करके नित्य व निरन्तर ध्यान-युक्त तथा विरक्त होकर;
श्लोक 53- अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह[1] को छोड़ कर शान्त एवं ममता रहित होता है वह व्यक्ति ब्रह्मभूत होने योग्य होता है। इस प्रकार ब्रह्मभूत हो जाने पर ;श्लोक 54- चित्त सदैव प्रसन्न रहता है, आत्म-तुष्ट होकर वह व्यक्ति किसी बात की काँक्षा नहीं करता; इच्छा, राग, द्वेष व काम से रहित होने पर किसी से द्वेष नहीं करता और द्वेष भाव से रहित होने पर वह “सर्वभूतस्थमात्मान सर्वभूतानि चात्मनि” देखने लगता है तथा उसे “सर्वभूतात्मैक्य ज्ञान” प्राप्त हो जाता है और वह प्राणी मात्र प्रति सम व समदर्शी हो मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है।
श्लोक 55- भक्ति-भावना प्राप्त हो जाने पर वह भक्ति भावान्दित व्यक्ति मेरे सच्चे व वास्तविक तत्त्व को पहचान कर मुझे जान लेता है कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ। इस प्रकार मेरे वास्तविक तत्त्व को व स्वरूप को जान कर वह मुझ में ही मिल जाता है, मम्यय अर्थात् ब्रह्ममय हो जाता है; और
श्लोक 56- मेरा ही आश्रय लेकर तथा मत्पर होकर समस्त कर्मों को मदार्पण करके कर्म करने वाला मेरे अनुग्रह का पात्र बनकर मेरे अनुग्रह से मोक्ष-रूपी शाश्वत तथा अव्ययी पद[2] प्राप्त करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मोहात्मक विषय
  2. ब्राह्मी-स्थिति

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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