गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
।। ज्ञान-निष्ठा।। श्लोक 50 में भगवान कृष्ण ने जिस ज्ञान-निष्ठा का निर्देश किया है वह ज्ञान की परम-निष्ठा क्या है और गीता के उपसंहार में इसका निर्देश क्यों किया गया है? इस भू-लोक में सांख्य-निष्ठा तथा कर्म-योग-निष्ठा का प्रचलित होना अध्याय 2 श्लोक 3 में बताया गया है। सांख्य-मत के मानने वाले संन्यास ग्रहण कर कर्म-संन्यास को ज्ञान-निष्ठा मानते हैं; कर्म-योग-मार्ग को मानने वाले कर्म-योग की सिद्धावस्था को ज्ञान-निष्ठा मानते हैं; तथा भक्ति मार्ग के अनुयायी परमेश्वर परायण भाव-मय हो जाने को ज्ञान-निष्ठा मानते हैं। सांख्य-शास्त्र ज्ञान-निष्ठा प्रधान शास्त्र है। सांख्य शास्त्र के प्रणेता ब्रह्मा के मानस-पुत्र कपिल मुनि थे जिनको जन्म से ही ज्ञान प्राप्त था। सांख्य मत की यह सिद्धान्त है कि जीवन के तीनों आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ व वानप्रस्थ पूरे कर लेने के पश्चात या इनको पूरा करने से पहले ही यदि मनुष्य को सांसारिक जीवन निःसार प्रतीत होने लगे तो वह संसार को छोड़कर संन्यास का चौथा आश्रम ग्रहण कर ले और एकान्त स्थान में या निर्जन वन में बैठकर ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करे। इसी कारण सांख्य-मत ज्ञान-निष्ठा मार्ग कहलाता है; कर्म-त्याग का यह मार्ग सांख्य-शास्त्र में संन्यास-मार्ग कहलाता है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज