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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
33. भक्ति से विशुद्ध आनंद का लाभ
5. यह भक्ति होगी, तो उस महान चित्रकार की कला हम देख सकेंगे। उसके हाथ की वह कलम हम देख सकेंगे। जहाँ एक बार उस उद्गम के झरने को और वहाँ के अपूर्व मधुर रस को चखा कि और सब रस तुच्छ और नीरस मालूम होंगे। जिसने वास्तविक केले खाये हैं, वह लकड़ी के रंगीन केले एक क्षण के लिए हाथ में लेगा और ‘बड़े सुंदर हैं’, कहकर एक ओर रख देगा। असली केलों का स्वाद मिल जाने के कारण उसे इन नकली केलों में खास उत्साह नहीं रहता। इसी तरह जिसने असली झरने की मिठास चख ली, वह बाहर के गुलाब-शर्बत पर लट्टू नहीं होगा।
6. एक तत्त्वज्ञानी से लोगों ने कहा- "महाराज, चलिए शहर में आज बड़ी आराइश की गयी है।" तत्त्वज्ञानी बोला- "आराइश क्या है? एक दीपक, इसके बाद दूसरा, फिर तीसरा, इस तरह लाख, दस लाख, करोड़ जितने चाहे समझ लो। समझ गया तुम्हारी आराइश।" गणित श्रेणी में होता है, 1 + 2 + 3 इस तरह अनंत तक। संख्याओं में जो अंतर रखना है, वह यदि मालूम हो जाये, तो फिर सारी संख्या लिखने की जरूरत नहीं रहती। उसी तरह वे दीपक एक के बाद एक रख दिये समझो। इनमें इतना मशगूल होने जैसी क्या बात है? परन्तु मनुष्य को ऐसे आनंद प्रिय होते हैं। वह नीबू लायेगा, शक्कर लायेगा, पानी में घोलेगा और फिर बड़ा स्वाद लेकर कहेगा-"वाह, क्या बढ़िया शिकंजी बनी है।" जीभ को जायका लेने के सिवा और धंधा ही क्या है? यह उसमें मिलाओ, वह इसमें मिलाओ। ऐसी मिलावट की चाट खाने में ही सारा मजा! बचपन में एक बार मैं सिनेमा देखने गया था। साथ में एक टाट का टुकड़ा ले गया था, ताकि नींद आने लगे, तो सो जाऊं। परदे पर आंखों को चौंधिया देने वाली वह आग मैं देखने लगा। दो ही चार मिनट में उन अग्निचित्रों को देखकर मेरी आंखें थक गयीं। मैं अपने टाट पर सो गया और कहा कि खेल जब खतम हो जाये, तो जगा लेना। रात को बाहर खुली हवा में आकाश के चांद-तारे देखना छोड़कर, शांत सृष्टि का वह पवित्र आनंद छोड़कर उस हवाबंद थियेटर में आग की पुतलियों को नाचते देखकर लोग तालियां पीटते हैं! यह सारा मेरी तो समझ में ही नहीं आता।
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