गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 65

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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
33. भक्ति से विशुद्ध आनंद का लाभ

5. यह भक्ति होगी, तो उस महान चित्रकार की कला हम देख सकेंगे। उसके हाथ की वह कलम हम देख सकेंगे। जहाँ एक बार उस उद्गम के झरने को और वहाँ के अपूर्व मधुर रस को चखा कि और सब रस तुच्छ और नीरस मालूम होंगे। जिसने वास्तविक केले खाये हैं, वह लकड़ी के रंगीन केले एक क्षण के लिए हाथ में लेगा और ‘बड़े सुंदर हैं’, कहकर एक ओर रख देगा। असली केलों का स्वाद मिल जाने के कारण उसे इन नकली केलों में खास उत्साह नहीं रहता। इसी तरह जिसने असली झरने की मिठास चख ली, वह बाहर के गुलाब-शर्बत पर लट्टू नहीं होगा।

6. एक तत्त्वज्ञानी से लोगों ने कहा- "महाराज, चलिए शहर में आज बड़ी आराइश की गयी है।" तत्त्वज्ञानी बोला- "आराइश क्या है? एक दीपक, इसके बाद दूसरा, फिर तीसरा, इस तरह लाख, दस लाख, करोड़ जितने चाहे समझ लो। समझ गया तुम्हारी आराइश।" गणित श्रेणी में होता है, 1 + 2 + 3 इस तरह अनंत तक। संख्याओं में जो अंतर रखना है, वह यदि मालूम हो जाये, तो फिर सारी संख्या लिखने की जरूरत नहीं रहती। उसी तरह वे दीपक एक के बाद एक रख दिये समझो। इनमें इतना मशगूल होने जैसी क्या बात है? परन्तु मनुष्य को ऐसे आनंद प्रिय होते हैं। वह नीबू लायेगा, शक्कर लायेगा, पानी में घोलेगा और फिर बड़ा स्वाद लेकर कहेगा-"वाह, क्या बढ़िया शिकंजी बनी है।" जीभ को जायका लेने के सिवा और धंधा ही क्या है? यह उसमें मिलाओ, वह इसमें मिलाओ। ऐसी मिलावट की चाट खाने में ही सारा मजा! बचपन में एक बार मैं सिनेमा देखने गया था। साथ में एक टाट का टुकड़ा ले गया था, ताकि नींद आने लगे, तो सो जाऊं। परदे पर आंखों को चौंधिया देने वाली वह आग मैं देखने लगा। दो ही चार मिनट में उन अग्निचित्रों को देखकर मेरी आंखें थक गयीं। मैं अपने टाट पर सो गया और कहा कि खेल जब खतम हो जाये, तो जगा लेना। रात को बाहर खुली हवा में आकाश के चांद-तारे देखना छोड़कर, शांत सृष्टि का वह पवित्र आनंद छोड़कर उस हवाबंद थियेटर में आग की पुतलियों को नाचते देखकर लोग तालियां पीटते हैं! यह सारा मेरी तो समझ में ही नहीं आता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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