गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 66

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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन

7. मनुष्य इतना निरानंद कैसे? उन निर्जीव पुतलियों को देखकर आखिर बेचारा किसी तरह थोड़ा आनंद पा लेता है। जीवन में आनंद नहीं है, तो कृत्रिम आनंद खोजते हैं। एक बार हमारे पड़ोस में ‘ढमढम’ बजना शुरू हुआ। मैंने पूछा- "यह बाजा क्यों?" तो कहा गया - "लड़का हुआ है!" दुनिया में क्या एक तेरे ही लड़का हुआ है, जो ‘ढमढम’ बजाकर दुनिया से कहते हो कि मेरे लड़का हुआ है? लड़का होने की बात कहकर नाचता, कूदता और गाता है। यह सब लड़कपन नहीं तो क्या है? मानों आनंद का अकाल ही पड़ गया है। अकाल के दिनों में जैसे कहीं अनाज का दाना दीखते ही लोग टूट पड़ते हैं, उसी तरह जहाँ लड़का हुआ, सरकस आया, सिनेमा आया कि ये आनंद के भूखे-प्यासे लोग फुदकने लगते हैं।

क्या यह सच्चा आनंद है? संगीत की लहरें कानों में घुसकर दिमाग को धक्का देती हैं। रूप आंखों में घुसकर दिमाग को धक्का देता है। इन धक्कों में ही बेचारों का आनंद समाया रहता है। कोई तंबाकू कूटकर उसे नाक में घुसेड़ता है, कोई उसकी बीड़ी बनाकर मुंह में खोंसता है। उस सुंघनी का या उस धुएं का धक्का लगा, तो मानों उन्हें आनंद की गठरी मिल गयी। बीड़ी का ठूंठ मिलते ही उनके आनंद की सीमा नही रहती। टॉल्सटॉय लिखते हैं- "उस बीड़ी की खुमारी में मनुष्य किसी का खून भी कर सकता है!" एक प्रकार का नशा ही तो है वह!

ऐसे आनंद में मनुष्य क्यों मस्त हो जाता है? क्योंकि उसे वास्तविक आनंद का पता नहीं है। मनुष्य परछाई में ही भूला है। आज वह पांच ज्ञानेंद्रियों का ही आनंद ले रहा है। यदि आंख की इंद्रिय न होती, तो वह मानता कि संसार में इंद्रियों के चार ही आनंद हैं। कल यदि मंगल ग्रह से कोई छह इंद्रियों वाला मनुष्य नीचे उतर आये तो ये बेचारे पांच इंद्रियों वाले खिन्न होंगे और रोते-रोते कहेंगे कि "इसके मुकाबले हम कितने दीन-हीन हैं।"

सृष्टि का संपूर्ण अर्थ इन पांच ज्ञानेंद्रियों को कैसे मालूम होगा? इन पांच विषयों में भी फिर मनुष्य चुनाव करता है और उसमें रमता रहता है बेचारा। गधे का रेंकना उसके कानों में जाता है, तो कहता है कि कहाँ से यह अशुभ आवाज आ गयी? तो क्या तुम्हारा दर्शन होने से उस गधे का कुछ अशुभ नहीं होगा? तुम्हीं को दूसरे से नुकसान होता है, क्या दूसरों का तुमसे कुछ नहीं बिगड़ता? पर मान लिया है कि गधे का रेंकना अशुभ है।

एक बार बड़ौदा कॉलेज में मेरे रहते समय कुछ यूरोपियन गायक आये। थे तो वे उत्तम गवैये, अपनी तरफ से कमाल कर रहे थे; परन्तु मैं सोच रहा था कि कब यहाँ से छूटूंगा, क्योंकि मुझे वैसा गाना सुनने की आदत नहीं थी। मैंने उन्हें फेल कर दिया। हमारी तरफ के गवैये यदि उधर जायें, तो शायद वे भी वहाँ फेल समझे जायेंगे। संगीत से एक को आनंद होता है, तो दूसरे को नहीं। मतलब यह कि वह सच्चा आनंद नहीं है, मायावी आनंद है। जब तक वास्तविक आनंद का दर्शन नहीं होगा, तब तक इस मायावी आनंद में ही झूलते रहेंगे। जब तक असली दूध नहीं मिला था, तब तक आटा घोलकर बनाया दूध ही अश्वत्थामा दूध मानकर पीता था। इसलिए जब आप सच्चा स्वरूप समझ लेंगे, उसका आनंद चख लेंगे, तो फिर दूसरी सब चीजें फीकी लगेंगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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