गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 64

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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन

4. उस परमेश्वर को समझ लेने का एक महान साधन, एक महान विकर्म, बताने के लिए सातवें अध्याय में भक्ति का भव्य दालान खोल दिया है। चित्त-शुद्धि के लिए यज्ञ-दान, जप-तप, ध्यान-धारणा आदि अनेक विकर्म बताये जाते हैं; परंतु इन साधनों को मैं सोडा, साबुन और अरीठा की उपमा दूंगा। लेकिन भक्ति को पानी कहूंगा। सोडा, साबुन अरीठा सफाई करते हैं, परंतु पानी के बिना उनका काम नहीं चल सकता। पानी न हो, तो उनसे क्या लाभ? सोडा, साबुन, अरीठा न हो, केवल पानी हो, तो भी वह निर्मलता ला सकता है। उस पानी के साथ यदि ये पदार्थ भी हों, तो अधिकस्य अधिकं फलम् हो जायेगा। कहेंगे कि दूध में शक्कर पड़ी है। यज्ञ-याग, ध्यान, तप, इन सबमें यदि हार्दिकता न हो, तो फिर चित्त-शुद्धि होगी कैसे? हार्दिकता का ही अर्थ है - भक्ति।

सब प्रकार के साधनों को भक्ति की जरूरत है। भक्ति सार्वभौम उपाय है। सेवा शास्त्र सीखकर, उपचारों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर कोई मनुष्य रोगी की सेवा-शुश्रूषा के लिए जाता है, पर यदि उसके मन में सेवा की भावना न हो तो बताओ‚ सच्ची सेवा कैसे बनेगी? बैल भले ही खूब मोटा-ताजा हो, पर यदि गाड़ी खींचने की इच्छा ही उसे न हो, तो वह कंधा डालकर बैठ जायेगा और संभव है कि गाड़ी को किसी खड्डे में भी गिरा दे। जिस कार्य में हार्दिकता नहीं है, उससे न तृष्टि मिल सकती है, न पुष्टि।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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