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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन
4. उस परमेश्वर को समझ लेने का एक महान साधन, एक महान विकर्म, बताने के लिए सातवें अध्याय में भक्ति का भव्य दालान खोल दिया है। चित्त-शुद्धि के लिए यज्ञ-दान, जप-तप, ध्यान-धारणा आदि अनेक विकर्म बताये जाते हैं; परंतु इन साधनों को मैं सोडा, साबुन और अरीठा की उपमा दूंगा। लेकिन भक्ति को पानी कहूंगा। सोडा, साबुन अरीठा सफाई करते हैं, परंतु पानी के बिना उनका काम नहीं चल सकता। पानी न हो, तो उनसे क्या लाभ? सोडा, साबुन, अरीठा न हो, केवल पानी हो, तो भी वह निर्मलता ला सकता है। उस पानी के साथ यदि ये पदार्थ भी हों, तो अधिकस्य अधिकं फलम् हो जायेगा। कहेंगे कि दूध में शक्कर पड़ी है। यज्ञ-याग, ध्यान, तप, इन सबमें यदि हार्दिकता न हो, तो फिर चित्त-शुद्धि होगी कैसे? हार्दिकता का ही अर्थ है - भक्ति।
सब प्रकार के साधनों को भक्ति की जरूरत है। भक्ति सार्वभौम उपाय है। सेवा शास्त्र सीखकर, उपचारों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर कोई मनुष्य रोगी की सेवा-शुश्रूषा के लिए जाता है, पर यदि उसके मन में सेवा की भावना न हो तो बताओ‚ सच्ची सेवा कैसे बनेगी? बैल भले ही खूब मोटा-ताजा हो, पर यदि गाड़ी खींचने की इच्छा ही उसे न हो, तो वह कंधा डालकर बैठ जायेगा और संभव है कि गाड़ी को किसी खड्डे में भी गिरा दे। जिस कार्य में हार्दिकता नहीं है, उससे न तृष्टि मिल सकती है, न पुष्टि।
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