गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 157

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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
74. नम्रता, निर्दम्भता आदि मूलभूत ज्ञान-साधना

30. यह सब करने के लिए नैतिक साधना की मजबूत बुनियाद चाहिए। सत्य-असत्य का विवेक करके सत्य को ही सदा ग्रहण करना चाहिए। सार-असार का विचार करके सार ही लेना चाहिए। सीप को फेंककर मोती ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार जीवन का श्रीगणेश करना है। फिर आत्म-प्रयत्न और परमेश्वरीय कृपा के बल पर ऊपर चढ़ते जाना है। इस सारी साधना में यदि हम देह से आत्मा को अलग करने का अभ्यास डाल लें, तो हमें बड़ी मदद मिलगी। ऐसे समय मुझे ईसा का बलिदान याद आता है। उनके शरीर में कीलें ठोंक-ठोंककर, उनके प्राण ले रहे थे। कहते हैं, उस समय उनके मुंह से उद्गार निकले- 'भगवन, इतनी यातनाएं क्यों देते हैं?' किंतु फौरन भगवान ईसा ने अपने को संभाला और कहा- 'प्रभु, तेरी ही इच्छा पूर्ण हो। इन लोगों को क्षमा कर। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।' ईसा के इस उदाहरण में बड़ा रहस्य भरा है। देह से आत्मा को कितना अलग करना चाहिए, इसका यह प्रतीक है। कहाँ तक मंजिल तय करनी है, कहाँ तक वह तय की जा सकती है, यह ईसा मसीह के जीवन से मालूम होता है, देह एक छिलके की तरह अलग हो रही है- यहाँ तक मंजिल आ पहुँची है। जब-जब आत्मा को देह से अलग करने का विचार मेरे मन में आता है, तब-तब ईसा मसीह का यह जीवन मेरी आंखों के सामने आ जाता है। देह से सर्वथा पृथक हो जाने का, उससे मानो संबंध टूट जाने का उदहारण ईसा मसीह का जीवन पेश करता है।

31. देह और आत्मा का यह पृथक्करण तब तक शक्य नहीं है, जब तक सत्य-असत्य का विवेक न हो। यह विवेक, यह ज्ञान, हमारी रग-रग में व्याप्त हो जाना चाहिए। ज्ञान का अर्थ हम करते हैं 'जानना'। परंतु 'बुद्धि से जानना', यह ज्ञान नहीं है। मुंह में कौर डालना भोजन कर लेना नहीं है। मुंह में डाला हुआ चबाकर गले में जाना चाहिए और वहाँ से पेट में जाकर, पचकर उसका रस, रक्त सारे शरीर में पहुँचकर पुष्टि मिलनी चाहिए। ऐसा होगा तभी वह सच्चा भोजन होगा। उसी तरह कोरे बुद्धिगत ज्ञान से काम नहीं चल सकता। वह जानकारी, वह ज्ञान सारे जीवन में व्याप्त होना चाहिए, हृदय में संचरित होना चाहिए। हमारे हाथ, पांव, आंख आदि इंद्रियों के द्वारा वह ज्ञान प्रकट होना चाहिए। ऐसी स्थिति हो जानी चाहिए कि सारी ज्ञानेंद्रियां और कर्मेद्रियां विचारपूर्वक ही सब कर्म कर रही है। इसलिए इस तेरहवें अध्याय में भगवान ने ज्ञान की बहुत बढ़िया व्याख्या की है। स्थितप्रज्ञ के लक्षण की तरह ही ज्ञान के लक्षण हैं- अमानित्वमदंभित्वमहिंसा क्षांतिरार्जवम्। ऐसे बीस गुण भगवान ने बताये हैं। वे केवल यह कहकर नहीं रुके कि इन गुणों को ‘ज्ञान’ कहते हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट बताया कि इसके विपरीत जो कुछ है, वह अज्ञान है। ज्ञान की जो साधना बतायी, उसी का अर्थ है ज्ञान। सुकरात कहता है कि 'सद्गुण को ही मैं ज्ञान मानता हूँ।' साधना और साध्य, दोनों एक रूप ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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