तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
74. नम्रता, निर्दम्भता आदि मूलभूत ज्ञान-साधना
32. गीता के इन बीस साधनों को ज्ञानदेव ने अठारह ही कर दिये हैं। उन्होंने इनका वर्णन बड़ी हार्दिकता से किया है। इन गुणों से संबंध रखने वाले केवल पांच ही श्लोक भगवद्गीता में हैं; परंतु ज्ञानदेव ने अपनी ज्ञानेश्वरी में इन पर सात सौ ओवियां (छंद) लिखी हैं। वे इस बात के लिए बड़े चिंतित थे कि समाज में सद्गुणों का विकास हो, सत्यस्वरूप परमेश्वर की महिमा फैले। इन गुणों का वर्णन करते हुए उन्होंने अपना सारा अनुभव उन ओवियों में उड़ेल दिया है। मराठी भाषा-भाषियों पर उनका यह अनंत उपकार है। ज्ञानदेव के रोम-रोम में ये गुण व्याप्त थे। भैंसे की पीठ पर जो चाबुक लगाया गया, उसका निशान ज्ञानदेव की पीठ पर उभर आया। भूतमात्र के प्रति इतनी दयार्द्रता उनमें थी। ज्ञान देव के ऐसे करुणापूर्ण हृदय से ‘ज्ञानेश्वरी’ प्रकट हुई हैं। इन गुणों का उन्होंने विवेचन किया। उनका गुण-वर्णन हम पढ़ें, मनन करें और हृदय में भर लें। ज्ञानदेव की यह मधुर भाषा मैं चख सका इसके लिए मैं अपने को धन्य मानता हूँ। उनकी मधुर भाषा मेरे मुंह में आकर बैठ जाये, इसके लिए यदि मुझे फिर से जन्म लेना पड़े, तो मैं धन्यता का ही अनुभव करूंगा। अस्तु। सार यह कि उत्तरोत्तर अपना विकास करते हुए, आत्मा को देह से पृथक करते हुए सब लोग अपने जीवन को परमेश्वरमय बनाने का यत्न करें। [1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 15-5-32
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