गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 156

Prev.png
तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव

29. इस प्रकार उपद्रष्टानुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः- इस स्वरूप में हमें परमात्मा का उत्तरोत्तर अधिकाधिक अनुभव करना है। प्रभु पहले केवल तटस्थ रहकर देखता है। फिर नैतिक जीवन का आरंभ होने पर हमारे हाथों से सत्कर्म होने लगते हैं, तब वह हमें 'शाबाशी' देता है। फिर चित्त के सूक्ष्म मैल धो डालने के लिए, अपने प्रयत्नों को अपर्याप्त देखकर भक्त जब पुकारता है, तो वह अनाथ-नाथ सहायता के लिए दौड़ पड़ता है। उसके बाद फल को भी भगवान को अर्पण करके उसे ‘भोक्ता’ बना देना और अंत में सभी संकल्प उसी को अर्पण करके सारा जीवन हरिमय बनाना है। यही मानव का अंतिम साध्य है। ‘कर्मयोग’ और ‘भक्तियोग’ रूपी दो पंखों से उड़ते हुए साधक को इस अंतिम मंजिल तक जा पहुँचना है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः