तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव
29. इस प्रकार उपद्रष्टानुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः- इस स्वरूप में हमें परमात्मा का उत्तरोत्तर अधिकाधिक अनुभव करना है। प्रभु पहले केवल तटस्थ रहकर देखता है। फिर नैतिक जीवन का आरंभ होने पर हमारे हाथों से सत्कर्म होने लगते हैं, तब वह हमें 'शाबाशी' देता है। फिर चित्त के सूक्ष्म मैल धो डालने के लिए, अपने प्रयत्नों को अपर्याप्त देखकर भक्त जब पुकारता है, तो वह अनाथ-नाथ सहायता के लिए दौड़ पड़ता है। उसके बाद फल को भी भगवान को अर्पण करके उसे ‘भोक्ता’ बना देना और अंत में सभी संकल्प उसी को अर्पण करके सारा जीवन हरिमय बनाना है। यही मानव का अंतिम साध्य है। ‘कर्मयोग’ और ‘भक्तियोग’ रूपी दो पंखों से उड़ते हुए साधक को इस अंतिम मंजिल तक जा पहुँचना है।
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