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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
ध्यान करते करते मर जाने पर भी किन्तु किसी प्रकार श्रीराधिका-कृष्ण तत्त्व की अणु मात्र भी स्फूर्त्ति नहीं होती, अहो! या परम सत्य है कि यह धाम (श्री वृन्दावन) वैकुण्ठ आदि निखिल धामों का भी परम धाम है। श्रीनन्द के ब्रज में वह पूर्ण माधुर्य-धुरा सचलरूप से निश्चित ही अवस्थान करती है। इसलिये इस श्रीवृन्दावन में ही हमारी परम अचला रति हो।।94।।
माया (लक्ष्मी) तथा चंद्र से भी अधिक रमणीय, उज्ज्वल महाबीज (क्लीं) समन्वित, चित्, ज्योतिर्मय, स्वच्छ, स्वच्छन्दस्वरूप, उन्मद, कंवल सद्वस्तु से मंडित, अनन्त पार रस समुद्र के दिव्य द्वीप की तरह देदीप्यमान नन्द गोष्ठ मथुरामंडल विराजमान है, उसमें भी श्रीवृन्दावन ही अत्यधिक विस्मयजनक रसपूर्ण है।।95।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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