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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
हे श्रीवृन्दावन! तुम आनन्द के अपार सागर हो, और मैं इस जगत में अतुलनीय दुखी हूँ। तुम सत्य के अत्यन्त रक्षकतम हो, और मैं पापी हूं, तुम्हारी अनाथों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा है और मैंने भी तुम्हारी एक मात्र शरण ले ली है, यही विचार कर मैंने तुम्हारी परम आशा लगा रखी है।।92।।
अहो! जो सब मंदभाग्य व्यक्ति श्रीवृन्दावन के विमुख हैं। उनका तो नाम भी मेरे कानों में न जावे। जो श्रीराधा रसिक श्री श्यामसुन्दर की विमल प्रेम भक्ति से विहीन हैं एवं अज्ञ हैं, क्या वे अप्राकृत जगत में इस प्रकार का किंचित भी सुख देख सकते हैं? ।।93।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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