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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
हे श्रीवृन्दावनटवि! आप स्वभाव से निरन्तर अगाध स्नेहशीला हो, मैं, दुराचारी एवं अपवित्र विषयों में संग्लन हूँ, किन्तु आप मुझे अपना बालक जानकर अपनी गोदी में लेकर समस्त अपराधों को सहन कीजिये, माता जैसे अपने बालक की धूलि झाड़ देती है, उसी प्रकार आप मेरी मलीनता को दूर करते हुए मेरे शरीर का अच्छी प्रकार से मार्ज्जन कर दीजिये। हे जननि! आप अपने प्रियतम (श्रीराधा-कृष्ण) के शुद्ध दिव्य प्रेमामृतरूप स्तन को मुझे भरपेट पान कराकर मेरी हर प्रकार से रक्षा कीजिए।।1।।
हे श्रीवृन्दावन! मुझमें धर्म का आभास नहीं है, और न ही मुझे पापों से भय लगता है, श्रीकृष्ण में भी मेरी प्रीति नहीं है, न ही साधुजनों से मेरी मित्रता है, किन्तु किसी प्रकार से मैं आप में (धाम में) निवास कर रहा हूँ बस इतना ही जानकर मुझ अति दुर्भागे, गतिहीन जन को यदि आपने स्वीकार कर लिया है तो अब आप मेरा प्रतिपालन भी कीजिये।।2।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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