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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
वेद अनेक प्रकार के अनुसृत वाक्यजाल बहे फैलाकर केवल खेद ही उत्पन्न करते हैं, साधु समाज केवल हरिरस की आशा ने मेरे दग्धचित्त के संताप को सम्यक शान्त करने में असमर्थ है। श्रौत और स्मार्त्त जितने साधन हैं, उनमें सर्वत्र विरोध ही दीखता है, हा श्री वृन्दावन! हा श्रीराधारति भवन! तुम ही एक मेरे आश्रय हो।।96।।
यह राग क्या है और विराग क्या है? श्रेष्ठ यश या खोटा यश ही क्या है? धर्म क्या है? अधर्म क्या है? वह सत् कर्म अथवा असत् कर्म क्या है! निष्कामता और वासना क्या होती है? दोष क्या है और गुण क्या है? अनेक प्रकार के दुःख अथवा सुख क्या हैं? अहो! मृत्यु पर्यन्त कोटि वज्रपात क्यों न होवे श्रीवृन्दावन क्यों त्याग कर मुझे कहीं नहीं जाना है।।97।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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