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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
11. श्री भक्त माल की प्रसिद्ध भक्ति रस बोधिनी टीका 365 में वर्णित है कि- विप्र बड़ भाग हरि आज्ञा दई जानियै। मेरी उभै सुता, ब्याह देतौ लेवो नाम मेरो, इनको जो वंस सो प्रसंस जग मानियै।। श्री हितहरिवंशजी अपनी स्त्री रुक्मिणीजी के गर्भ से पैदा हुए दो पुत्र और एक कन्या के उत्तर दायित्व से मुक्त होकर अर्थात् उनका विवाहादि करके घर-बार को त्याग कर 31 वर्ष की उम्र में वृन्दावन की ओर रवाना हुए। उनके हृदय में-श्री राधा-कृष्ण का अनुराग बढ़ गया था, किन्तु उस समय एक बड़ भागी ब्राह्मण को स्वप्न हुआ कि अपनी दोनों लड़कियों कृष्ण दासी और मनोहर दासी का विवाह श्री हितहरिवंशजी से श्री भगवान् का नाम लेकर कर दो। ऐसा ही हुआ श्री हितहरिवंश जी ने उन दोनों के साथ विवाह कर लिया और उससे जो सन्तानें हुई वे जगत् प्रसिद्ध हुईं। 31 वर्ष के बाद तो उनके हृदय में श्री राधा-कृष्ण का अनुराग उदय हुआ। जिससे वे श्री वृन्दावन की ओर अग्रसर हुए, फिर छः मास के जब वे थे तो इन्होंने श्री राधा रससुधा-निधि की रचना की - ऐसा प्रचार करना वस्तुतः आश्चर्यजनक है। द्वितीयतः यदि कोई छोटा बालक प्राक्तन संस्कार वश कोई स्तव गान करे तो यह आवश्यक नहीं कि वह उस स्तव का रचयिता भी हो। 12. श्री राधारस सुधानिधि में प्रयुक्त प्रेमोल्लासैक सीमा, परमरस-चमत्कारेक सीमा, सौन्दर्यैंक सीमा, नववयोरूप लावण्य सीमा, लीला माधुर्य-सीमा, निजजन-परमोदार्य वात्सल्य सीमा, सौख्य सीमा, कलाकेलि माधुर्य सीमा तथा शुद्ध प्रेमविलास वैभव निधिः, कैशोर शोभा निधि वैदग्धी - मधुरांगभंगिम निधि, लावण्य-सम्पन्निधि महारस निधि, कन्दर्प लीला निधि, सौन्दर्यैक-सुधानिधि, एवं मधुपतेः सर्वस्व भूतोनिधि - इस प्रकार का जो शब्द-विन्यास है वह श्री प्रबोधानन्द सरस्वति पाद की प्रत्येक रचना में दीखता है, हित चतुरासी तथा स्फुट वाणी में कहीं भी नहीं दीखता - ऐसी भाव-भाषा का आभास तक भी नहीं दीखता। इस प्रकार की अनेक युक्तियां तथा आभ्यन्तरीण प्रमाणों द्वारा गौड़ीय वैष्णव इसे श्री प्रबोधानन्द सरस्वति की ही रचना सिद्ध करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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