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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
गौड़ीय वैष्णवों ने इस रचना को राधाबल्लभीय-वैष्णवों द्वारा श्री हितहरिवंश-रचित प्रकाशित-प्रचारित करने पर आज तक क्यों कोई आपत्ति नहीं उठाई?- इस प्रश्न का भी उपयुक्त उत्तर वे देते हैं- गौड़ीय साहित्य का बहुत बड़ा भण्डार है जो अन्य किसी भी सम्प्रदाय के पास नहीं है। इस जैसी असंख्य रचनाएँ उनके पास हैं। अकेले श्री सरस्वती पाद की ही 9 रचनाएँ हैं। उनमें से यदि एक रचना में किसी वैष्णव समाज को अपनी रसोपासना की भित्ति मिलती है और वह इसको एकमात्र अपनी उपासना का आधार मानकर श्री राधाकृष्ण-लीला रस का आस्वादन करता है तो आपत्ति कैसी और क्यों? इससे बड़ी सार्थकता श्री सरस्वति पाद की रचना की और क्या हो सकती है? विशेषतः गौड़ीय वैष्णवों का यह भी कहना है कि श्री सरस्वति पाद ने स्वयं ही अपनी इस राधादास्यैकनिष्ठापरक रचना को श्री हितहरिवंश जी को उनके मनोवांछित अवदान रूप में प्रदान किया था। इस प्रकार दो मत हैं इस रचना के सम्बन्ध में। किन्तु लेखक का यह मन्तव्य है कि यह परम आस्वादनीय रसमय निधि है। श्री श्रीकृष्णोपासक सिद्ध-साधकों के लिए यह जीवनमूरि तुल्य है। 4. संगीतमाधव - श्री सरस्वति पाद की यह गीत काव्य रचना है। इसमें 16 सर्ग हैं एवं अनेक संगीत। इनकी अन्यान्य रचनाओं की तरह इसमें भी ‘मान’ का कहीं वर्णन नहीं है। बल्कि श्री राधाजी अधिकतर कृष्ण विरह में विधुरा दिगाई गई हैं। इसमें रासलीला का अति स्वाभाविक वर्णन है। श्री सरस्वती पाद (तुंगविद्या) का दक्षिणा-नायिका स्वभाव इस रचना में भी सर्वत्र अभिव्यक्त हो रहा है। श्री जयदेव कवि की मधुर-कोमल-कान्त पदावलि का अनुसरण होने से इसमें गौड़ीय वैष्णवों की साधनोपासना का उपयुक्त सम्भार है। 5. आश्चर्यरासप्रबन्ध - श्रीमद्भागवत-वर्णित रासलीला के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना होने पर भी यथेष्ट विलक्षणता और अदृभुतत्त्व है। अतः यह ‘आश्चर्यरास-प्रबन्ध’ नाम से विख्यात है। अपनी अन्यान्य रचनाओं में श्री सरस्वति पाद प्रेमोन्मत्त हो उठने के कारण धारावाहिक-लीला या अपना विषय वर्णन नहीं कर पाए, परन्तु इस रचना में उन्होंने सम्पूर्ण धारा को अक्षुण्ण रखा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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