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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
श्रीराधिका-रसिक (श्रीश्यामसुन्दर) के युगल चरणों की मधुगन्ध में विमुग्ध होकर जिनकी बुद्धिरूप मधुकरी नित्य अति रसपूर्णता से विह्वला होकर श्रीवृन्दावन में ही भ्रमण करती है, उनके चरणों में भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर मैं बारबार वन्दना करता हूँ।।9।।
जिस (श्रीवृन्दावन) के स्वच्छ परम उज्ज्वल दिव्य वस्त्र रूप कुसुमादि से परिपूर्ण सुशीतलछायायुक्त नवीन वृक्षों के नीचे सुन्दर क्रीड़ाकर निद्रित भाव से विराजते हैं, एवं जिसकी कुसुरूप चन्दातपों से आच्छादित विविध मधुभरी कुंज कुंज में उदार केलिपरायण अद्भुत श्रीयुगलकिशोर अवस्थित हैं- उसी श्रीवृन्दावन में ज्योतिमय उन युगलकिशोर का दर्शन कर।।10।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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