विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्दश अध्यायब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च। हे अर्जुन! उस अविनाशी ब्रह्म का (जिसके साथ वह कल्प करता है, जिसमें वह गुणातीत एकीभाव से प्रवेश करता है), अमृत का, शाश्वत-धर्म का और उस अखण्ड एकरस आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् परमात्मस्थित सद्गुरु ही इन सबका आश्रय है। श्रीकृष्ण एक योगेश्वर थे। अब यदि आपको अव्यक्त-अविनाशी ब्रह्म, शाश्वत-धर्म, अखण्ड एकरस आनन्द की आवश्यकता है तो किसी तत्त्वस्थित, अव्यक्तस्थित महापुरुष की शरण लें उनके द्वारा ही यह सम्भव है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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