यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 652

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्दश अध्याय

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।26।।

जो पुरुष अव्यभिचारिणी भक्ति द्वारा अर्थात् इष्ट के अतिरिक्त अन्य सांसारिक स्मरणों से सर्वथा रहित होकर योग द्वारा अर्थात् उसी नियत कर्म द्वारा मुझे निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणों का अच्छी प्रकार उल्लंघन करके परब्रह्म के साथ एक होने के योग्य होता है, जिसका नाम कल्प है। ब्रह्म के साथ्ज्ञ एकीभाव हो जाना ही वास्तविक कल्प है। अनन्य भाव से नियत कर्म का आचरण किये बिना कोई भी गुणों से अतीत नहीं होता। अन्त में योगेश्वर निर्णय देते हैं-

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः