विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्दश अध्यायमां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। जो पुरुष अव्यभिचारिणी भक्ति द्वारा अर्थात् इष्ट के अतिरिक्त अन्य सांसारिक स्मरणों से सर्वथा रहित होकर योग द्वारा अर्थात् उसी नियत कर्म द्वारा मुझे निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणों का अच्छी प्रकार उल्लंघन करके परब्रह्म के साथ एक होने के योग्य होता है, जिसका नाम कल्प है। ब्रह्म के साथ्ज्ञ एकीभाव हो जाना ही वास्तविक कल्प है। अनन्य भाव से नियत कर्म का आचरण किये बिना कोई भी गुणों से अतीत नहीं होता। अन्त में योगेश्वर निर्णय देते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज