विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दत्रयोदश अध्याय
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। वह ब्रह्म जीवधारियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है। चर और अचर रूप भी वही है। सूक्ष्म होने से वह दिखायी नहीं पड़ता, अविज्ञेय है, मन इन्द्रियों से परे है तथा अति समीप और दूर भी वही है। अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्। अविभाज्य होकर भी वह सम्पूर्ण चराचर भूतों में अलग-अलग के सदृश प्रतीत होता है। वह जाननेयोग्य परमात्मा समस्त भूतों को उत्पन्न करनेवाला, भरण-पोषण करनेवाला और अन्त में संहार करनेवाला है। यहाँ बाह्य और आन्तरिक दोनों भावों की ओर संकेत किया गया है। जैसे-बाहर जन्म और भीतर जागृति, बाहर पालन और भीतर योगक्षेम का निर्वाह, बाहर शरीर का परिवर्तन और भीतर सर्वस्व का विलय अर्थात् भूतों की उत्पत्ति के कारणों का लय और उस लय के साथ ही अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। यह सब उसी ब्रह्म के लक्षण हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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