विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टम अध्याययदक्षरं वेदविदो वदन्ति ‘वेदविद्’ अर्थात् अविदित तत्त्व को प्रत्यक्ष जानने वाले लोग जिस परमपद को ‘अक्षरम्’-अक्षय कहते हैं, वीतराग महात्मा जिसमें प्रवेश के लिये यत्नशील रहते हैं, जिस परमपद को चाहनेवाले ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं (ब्रह्मचर्य का अर्थ जननेन्द्रिय मात्र का निरोध नहीं, बल्कि ‘ब्रह्म आचरति स ब्रह्मचारी’-बाह्य स्पर्शों को मन से त्यागकर ब्रह्म का दर्शन करा उसी में स्थान दिला शान्त हो जाता है। इस आचरण से इन्द्रिय-संयम ही नहीं, बल्कि सकलेन्द्रिय-संयम स्वतः हो जाता है। इस प्रकार जो ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं), जो हृदय में संग्रह करने योग्य है, धारण करने योग्य है उस पद को मैं तेरे लिये कहूँगा। वह पद है क्या, कैसे पाया जाता है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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