यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 391

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति सद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।11।।

‘वेदविद्’ अर्थात् अविदित तत्त्व को प्रत्यक्ष जानने वाले लोग जिस परमपद को ‘अक्षरम्’-अक्षय कहते हैं, वीतराग महात्मा जिसमें प्रवेश के लिये यत्नशील रहते हैं, जिस परमपद को चाहनेवाले ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं (ब्रह्मचर्य का अर्थ जननेन्द्रिय मात्र का निरोध नहीं, बल्कि ‘ब्रह्म आचरति स ब्रह्मचारी’-बाह्य स्पर्शों को मन से त्यागकर ब्रह्म का दर्शन करा उसी में स्थान दिला शान्त हो जाता है। इस आचरण से इन्द्रिय-संयम ही नहीं, बल्कि सकलेन्द्रिय-संयम स्वतः हो जाता है। इस प्रकार जो ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं), जो हृदय में संग्रह करने योग्य है, धारण करने योग्य है उस पद को मैं तेरे लिये कहूँगा। वह पद है क्या, कैसे पाया जाता है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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