विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्याय‘पूज्य महाराज जी’ लगभग पाँच इंच ऊँचे आसन पर बैठते थे। एक बार भाविकों ने लगभग एक फीट ऊँचा संगमरमर का एक तख्त मँगा दिया। महाराज जी एक दिन तो बैठे, फिर बोले-“नहीं हो! बहुत ऊँचा हो गया। ऊँचे नहीं बैठे के चाही साधू को, अभिमान होइ जावा करते है। नीचेहू न बैठे के चाही, हीनता आवत है, अपने से घृणा आवत है।” बस, उसको उठवाया और जंगल में एक बगीचा था, वहाँ रखवा दिया। वहाँ न कभी महाराज जाते थे और न अब ही कोई जाता है। यह था उन महापुरुष का क्रियात्मक शिक्षण। इसी प्रकार साधक के लिये भी बहुत ऊँचा आसन नहीं होना चाहिये, नहीं तो भजनपूर्ति बाद में होगी, अहंकार पहले चढ़ बैठेगा। इसके पश्चात्-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज