यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 251

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


इस प्रकार उन्होंने भगवान के आविर्भाव की विधि को बताया कि वह किसी अनुरागी के हृदय में होता है, बाहर कदापि नहीं। श्रीकृष्ण ने बताया- मुझे कर्म नहीं बाँधते और इस स्तर से जो जानता है, उसे भी कर्म नहीं बाँधते। यही समझकर मुमुक्षु पुरुषों ने कर्म का आरम्भ किया था कि उस स्तर से जानेंगे तो जैसे श्रीकृष्ण वैसा ही उस स्तर से जाननेवाला वह पुरुष, और जान लेने पर वैसा ही वह मुमुक्षु अर्जुन। यह उपलब्धि निश्चित है, यदि यज्ञ किया जाय। यज्ञ का स्वरूप बताया। यज्ञ का परिणाम परमतत्त्व, परमशान्ति बताया। इस ज्ञान को पाया कहाँ जाय? इस पर किसी तत्त्वदर्शी के पास जाने और उन्हीं विधियों से पेश आने को कहा, जिससे वे महापुरुष अनुकूल हो जायँ।

योगेश्वर ने स्पष्ट किया कि वह ज्ञान तू स्वयं आचरण करके पायेगा, दूसरे के आचरण से तुझे नहीं मिलेगा। वह भी योग सिद्धि के काल में प्राप्त होगा, प्रारम्भ में नहीं। वह ज्ञान (साक्षात्कार) हृदय-देश में होगा, बाहर नहीं। श्रद्धालु, तत्पर, संयतेन्द्रिय एवं संशयरहित पुरुष ही उसे प्राप्त करता है। अतः हृदय में स्थित अपने संशय को वैराग्य की तलवार से काट। यह हृदय-देश की लड़ाई है। बाह्य युद्ध से गीतोक्त युद्ध का कोई प्रयोजन नहीं है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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