यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 250

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अर्जुन के प्रश्न करने पर कि आपका जन्म तो अब हुआ है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया-अव्यक्त, अविनाशी, अजन्मा और सम्पूर्ण भूतों में प्रवाहित होने पर भी आत्ममाया, योग-प्रक्रिया द्वारा अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को वश में करके मैं प्रकट होता हूँ। प्रकट होकर करते क्या हैं? साध्य वस्तुओं को परित्राण देने तथा जिनसे दूषित उत्पन्न होत हैं उनका विनाश करने के लिये, परमधर्म परमात्मा को स्थिर करने के लिये मैं आरम्भ से पूर्तिपर्यन्त पैदा होता हूँ। मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य है। उसे केवल तत्त्वदर्शी ही जान पाते हैं। भगवान का आविर्भाव तो कलियुग की अवस्था से ही हो जाता है, यदि सच्ची लगन हो; किन्तु आरम्भिक साधक समझ ही नहीं पाता कि यह भगवान बोल रहे हैं या योंही संकेत मिल रहे हैं। आकाश से कौन बोलाता है? ‘माहराज जी’ बताते थे कि जब भगवान कृपा करते हैं, आत्मा से रथी हो जाते हैं तो खम्भे से, वृक्ष से, पत्ते से, शून्य से हर स्थान से बोलते और सँभालते हैं। उत्थान होते-होते जब परमतत्त्व परमात्मा विदित हो जाय, तभी स्पर्श के साथ ही वह स्पष्ट समझ पाता है। इसलिये अर्जुन! मेरे उस स्वरूप को तत्त्वदर्शियों ने देखा और मुझे जानकर वे तत्क्षण मुझमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं, जहाँ से पुनः आवागमन में नहीं आते।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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