विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
यहाँ इन्द्रिय ही अग्नि है। अग्नि में डाली हुई वस्तु जैसे भस्मसात् हो जाती है, इसी प्रकार आशय बदलकर इष्ट के अनुकूल ढाल लेने पर विषयोत्तेजक रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द भी भस्म हो जाते हैं, साधक पर कुप्रभाव नहीं डाल पाते। साधक इन शब्दादिकों में रुचि नहीं लेता, इन्हें ग्रहण नहीं करता। इन श्लोकों में ‘अपरे’, ‘अन्ये’ शब्द एक ही साधक की ऊँची-नीची अवस्थाएँ हैं, एक ही यज्ञकर्ता का ऊँचा-नीचा स्तर है, न कि ‘अपरे’, ‘अपरे’ कहने से कोई अलग-अलग यज्ञ।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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