यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 225

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


साधक को संसार में रहकर ही तो भजन करना है। सांसारिक लोगों के भले-बुरे शब्द उससे टकराते ही रहते हैं। विषयोत्तेजक ऐसे शब्दों को सुनते ही साधक उनके आशय को योग, वैराग्य सहायक, वैराग्योत्तेजक भावों में बदलकर इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं। जैसा कि एक बार अर्जुन अपने चिन्तन में रत था, अकस्मात् उसके कर्ण-कुहरों में संगीत-लहरी झनझना उठी। उसने सिर उठाकर देखा तो उर्वशी खड़ी थी, जो एक अप्सरा थी। सभी उसके रूप पर मुग्ध हो झूम रहे थे; किन्तु अर्जुन ने उसे स्नेहिल दृष्टि से मातृवत् देखा। उस शब्द, रूप से मिलने वाले विकार विलीन हो गये। इन्द्रियों के अन्तराल में ही समाहित हो गये।

यहाँ इन्द्रिय ही अग्नि है। अग्नि में डाली हुई वस्तु जैसे भस्मसात् हो जाती है, इसी प्रकार आशय बदलकर इष्ट के अनुकूल ढाल लेने पर विषयोत्तेजक रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द भी भस्म हो जाते हैं, साधक पर कुप्रभाव नहीं डाल पाते। साधक इन शब्दादिकों में रुचि नहीं लेता, इन्हें ग्रहण नहीं करता।

इन श्लोकों में ‘अपरे’, ‘अन्ये’ शब्द एक ही साधक की ऊँची-नीची अवस्थाएँ हैं, एक ही यज्ञकर्ता का ऊँचा-नीचा स्तर है, न कि ‘अपरे’, ‘अपरे’ कहने से कोई अलग-अलग यज्ञ।


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः