यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 208

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।15।।


अर्जुन! पहले होनेवाले मोक्ष की इच्छावाले पुरुषों द्वारा भी यही जानकर कर्म कया गया। क्या जानकर? यही कि जब कर्मों का परिणाम परमात्मा भिन्न न रह जाय, कर्मों के परिणाम परमात्मा की स्पृहा न रह जाने पर उस पुरुष को कर्म नहीं बाँधते। श्रीकृष्ण इसी स्थितिवाले हैं इसलिये वे कर्म में लिपायमान नहीं होते और उसी स्तर से हम जान लेंगे तो हमें भी कर्म नहीं बाँधेगा। जैसे श्रीकृष्ण, ठीक उसी स्तर से जो भी जान लेगा, वैसा ही वह पुरुष भी कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा। अब श्रीकृष्ण ‘भगवान्’, ‘महात्मा’, ‘अव्यक्त’ ‘योगेश्वर’ या ‘महायोगेश्वर’ जो भी रहे हों, वह स्वरूप सबके लिये है। यही समझकर पहले के मुमुक्षु पुरुषों ने, मोक्ष की इच्छावाले पुरुषों ने कर्म पर कदम रखा। इसलिये अर्जुन! तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए इसी कर्म को कर। यही कल्याण का एकमात्र मार्ग है।



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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