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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।14।।
क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है। कर्मों का फल क्या है? श्रीकृष्ण ने पीछे बताया कि यज्ञ जिससे पूरा होता है, उस क्रिया का नाम कर्म है और पूर्तिकाल में यज्ञ जिसकी रचना करता है, उस ज्ञानामृत का पान करने वाले शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा लेता है। कर्म का परिणाम है परमात्मा, उस परमात्मा की चाह भी अब मुझे नहीं है; क्योंकि वह मुझसे भिन्न नहीं है। मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ, उसी की स्थितिवाला हूँ। अब आगे कोई सत्ता नहीं, जिसके लिये इस कार्य पर स्नेह रखूँ। इसलिये कर्म मुझे लिपायमान नहीं करते और इसी स्तर से जो भी मुझे जानता है अर्थात् जो कर्मों के परिणाम ‘परमात्मा’ को प्राप्त कर लेता है, उसे भी कर्म नहीं बाँधते। जैसे श्रीकृष्ण, वैसे उस स्तर से जाननेवाले महापुरुष।
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