यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 207

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।14।।


क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है। कर्मों का फल क्या है? श्रीकृष्ण ने पीछे बताया कि यज्ञ जिससे पूरा होता है, उस क्रिया का नाम कर्म है और पूर्तिकाल में यज्ञ जिसकी रचना करता है, उस ज्ञानामृत का पान करने वाले शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा लेता है। कर्म का परिणाम है परमात्मा, उस परमात्मा की चाह भी अब मुझे नहीं है; क्योंकि वह मुझसे भिन्न नहीं है। मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ, उसी की स्थितिवाला हूँ। अब आगे कोई सत्ता नहीं, जिसके लिये इस कार्य पर स्नेह रखूँ। इसलिये कर्म मुझे लिपायमान नहीं करते और इसी स्तर से जो भी मुझे जानता है अर्थात् जो कर्मों के परिणाम ‘परमात्मा’ को प्राप्त कर लेता है, उसे भी कर्म नहीं बाँधते। जैसे श्रीकृष्ण, वैसे उस स्तर से जाननेवाले महापुरुष।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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