|
यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
युग का तात्पर्य सत्ययुग, त्रेता या द्वापर नहीं, युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों के स्वभाव पर है। युगध्र्म सदैव रहते हैं। मानस में संकेत है-
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयं राम माया के प्रेरे।।[1]
युगधर्म सभी के हृदय में नित्य होते रहते हैं। अविधा से नहीं बल्कि विद्या से, राममाया की प्रेरणा से हृदय में होते हैं। जिसे प्रस्तुत श्लोक में आत्ममाया कहा गया है, वही है राममाया। हृ में राम की स्थिति दिला देनेवाली राम से प्रेरित है वह विद्या। कैसे समझा जाय कि अब कौन-सा युग कार्य कर रहा है, तो ‘सुद्ध सत्त्व समता बिज्ञाना। कृत प्रभ्ज्ञाव प्रसन्न मन जाना।।’ (रामचरितमानस, 7/103ख/2) जब हृदय में शुद्ध सत्त्वगुण ही कार्यरत हो, राजत तथा तामस दोनों गुण शान्त हो जायँ, विषमताएँ समाप्त हो गयी हों, जिसका किसी से द्वेष न हो, विज्ञान हो अर्थात् इष्ट से निर्देशन लेने और उस पर टिकने की क्षमता हो, मन में प्रसन्नता का पूर्ण संचार हो-जब ऐसी योग्यता आ जाय तो सतयुग में प्रवेश मिल गया।
|
|