यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 194

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


इसी प्रकार दो अन्य युगों का वर्णन किया और अन्त में-


तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा।[1]


तामसी गुण भरपूर हो, किंचित् राजसी गुण भी उसमें हो, चारों ओर वैर और विरोध हो तो ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। जब तामसी गुण कार्य करता है तो मनुष्य में आलस्य, निद्रा, प्रमाद का बाहुल्य होता है। वह कर्तव्य जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं हो सकता, निषिद्ध कर्म जानते हुए भी उससे निवृत्त नहीं हो सकता। इस प्रकार युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों की आन्तरित योग्यता पर निर्भर है। किसी ने इन्हीं योग्यताओं को चार युग कहा है, तो काई इन्हें ही चार वर्ण का नाम देता है, तो कोई इन्हें ही अति उत्तम, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट चार श्रेणी के साधक कहकर सम्बोधित करता है। प्रत्येक युग में इष्ट साथ देते हैं। हाँ, उच्चश्रेणी में अनुकूलता की भरपूरता प्रतीत होती है, निम्न युगों में सहयोग क्षीण प्रतीत होता है।



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 7/103ख/5

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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