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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
तृतीय अध्याय
अतः स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर नहीं होता। स्त्रियों के दूषित होने और वर्णसंकर से कोई सम्बन्ध नहीं है। शुद्ध स्वरूप की ओर अग्रसर न होकर प्रकृति में बिखर जाना ही वर्णसंकरता है। यदि महापुरुष सावधान होकर क्रिया (नियत कर्म) में बरतते हुए लोगों से क्रिया न कराये तो वह उस सारी प्रजा का हनन करनेवाला, मारनेवाला बने। साधना-क्रम में चलकर उस मूल अविनाशी की प्राप्ति ही जीवन है और प्रकृति में बिखरे रहना, भटक जाना ही मृत्यु है। किन्तु वह महापुरुष इस सारी पूजा को यदि क्रिया-पथ पर नहीं चलाता, इस सारी पूजा को बिखराव से रोककर सत्पथ पर नहीं चलाता तो वह सारी प्रजा का हनन करनेवाला हत्यारा है, हिंसक है और क्रमशः चलते हुए जो चला लेता है वह शुद्ध अहिंसक है। गीता के अनुसार शरीरों का निधन, नश्वर कलेवरों का निधन मात्र परिवर्तन है, हिंसा नहीं।
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