यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 154

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर तो देखा-सुना जाता है। अर्जुन भी इसी भय से विकल था कि स्त्रियाँ दूषित होंगी तो वर्णसंकर पैदा होगा; किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं-यदि मैं सावधान होकर आराधना में लगा न रहूँ तो वर्णसंकर का कर्ता होऊँ। वस्तुतः आत्मा का शुद्ध वर्ण है परमात्मा। अपने शाश्वत स्वरूप के पथ से भटक जाना वर्णसंकरता है। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष क्रिया में नहीं बरतते तो लोग उनके अनुकरण से क्रियारहित हो जायेंगे, आत्मपथ से भटक जायेंगे, वर्णसंकर हो जायेंगे। वे प्रकृति में खो जायेंगे।

स्त्रियों का सतीत्व एवं नस्ल की शुद्धता एक सामाजिक व्यवस्था है, अधिकारों का प्रश्न है, समाज के लिये उसकी उपयोगिता भी है; किन्तु माता-पिता की भूलों का सन्तान की साधना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ‘आपन करनी पार उतरनी।’ हनुमान, व्यास, वशिष्ठ, नारद, शुकदेव, कबीर, ईसा इत्यादि अच्छे महापुरुष हुए, जबकि सामाजिक कुलीनता से इनका सम्पर्क नहीं है। आत्मा अपने पूर्वजन्म के गुणधर्म लेकर आता है। श्रीकृष्ण कहते हैं-‘मन षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।’ (15/7)-मनसहित इन्द्रियों से जो कार्य इस जन्म में होता है, उनके संस्कार लेकर जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नवीन शरीर में प्रवेश कर जाता है। इसमें जन्मदाताओं का क्या लगा? उनके विकास में कोई अन्तर नहीं आया।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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