विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो यह सब लोक भ्रष्ट हो जायँ और मैं ‘संकरस्य’- वर्णसंकर का करनेवाला होऊँ तथा इस सारी प्रजा का हनन करनेवाला, मारनेवाला बनूँ। स्वरूप में स्थति महापुरुष सतर्क रहकर यदि आराधना-क्रम में न लगे रहें तो समाज उनकी नकल करके भ्रष्ट हो जायेगा। महापुरुष ने तो आराधना पूर्ण करके परम नैष्कम्र्य की स्थिति को पाया है। वे न रकें तो उकने लिये कोई हानि नहीं है; किन्तु समाज ने तो अभी आराधना आरम्भ ही नहीं की। पीछेवालों के मार्गदर्शन के लिये ही महापुरुष कर्म करते हैं, मैं भी करता हूँ अर्थात् श्रीकृष्ण एक महापुरुष थेे, न कि बैकुण्ठ से आये हुए विशेष भगवान। उन्होंने कहा कि-महापुरुष लोकसंग्रह के लिये कर्म करता है, मैं भी करता हूँ। यदि न करूँ तो लोगों का पतन हो जाय, सभी कर्म छोड़ बैठेंगे। मन बड़ा चंचल है। यह सब कुछ चाहता है, केवल भजन नहीं चाहता। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष कर्म न करें तो देखादेखी पीछेवाले भी तुरन्त कर्म छोड़ देंगे। उन्हें बहाना मिल जायेगा कि ये भजन नहीं करते, पान खाते हैं, इत्र लगाते हैं, सामान्य बातें करते हैं फिर भी महापुरुष कहलाते हैं-ऐसा सोचकर वे भी आराधना से हट जाते हैं, पतित हो जाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूँ तो सब भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकर का कर्ता बनूँ।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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