यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 153

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।

यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो यह सब लोक भ्रष्ट हो जायँ और मैं ‘संकरस्य’- वर्णसंकर का करनेवाला होऊँ तथा इस सारी प्रजा का हनन करनेवाला, मारनेवाला बनूँ।

स्वरूप में स्थति महापुरुष सतर्क रहकर यदि आराधना-क्रम में न लगे रहें तो समाज उनकी नकल करके भ्रष्ट हो जायेगा। महापुरुष ने तो आराधना पूर्ण करके परम नैष्कम्र्य की स्थिति को पाया है। वे न रकें तो उकने लिये कोई हानि नहीं है; किन्तु समाज ने तो अभी आराधना आरम्भ ही नहीं की। पीछेवालों के मार्गदर्शन के लिये ही महापुरुष कर्म करते हैं, मैं भी करता हूँ अर्थात् श्रीकृष्ण एक महापुरुष थेे, न कि बैकुण्ठ से आये हुए विशेष भगवान। उन्होंने कहा कि-महापुरुष लोकसंग्रह के लिये कर्म करता है, मैं भी करता हूँ। यदि न करूँ तो लोगों का पतन हो जाय, सभी कर्म छोड़ बैठेंगे। मन बड़ा चंचल है। यह सब कुछ चाहता है, केवल भजन नहीं चाहता। यदि स्वरूपस्थ महापुरुष कर्म न करें तो देखादेखी पीछेवाले भी तुरन्त कर्म छोड़ देंगे। उन्हें बहाना मिल जायेगा कि ये भजन नहीं करते, पान खाते हैं, इत्र लगाते हैं, सामान्य बातें करते हैं फिर भी महापुरुष कहलाते हैं-ऐसा सोचकर वे भी आराधना से हट जाते हैं, पतित हो जाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूँ तो सब भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकर का कर्ता बनूँ।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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