विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायअनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने ‘अनन्त विजय’ नामक शंख बजाया। कर्तव्य रूपी कुन्ती और धर्म रूपी युधिष्ठिर। धर्म पर स्थिरता रहेगी तो ‘अनन्तविजयम्’- अनन्त परमात्मा में स्थिति दिलायेगा। युद्धे स्थिरः सः युधिष्ठिरः। प्रकृति-पुरुष क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष में स्थिर रहता है, महान् दुःख से भी विचलित नहीं होता तो एक दिन जो अनन्त है, जिसका अन्त नहीं है वह है परम तत्त्व परमात्मा, उस पर विजय दिला देता है। नियम रूपी नकुल ने ‘सुघोष’ नामक शंख बजाया। ज्यों-ज्यों नियम उन्नत होगा, अशुभ का शमन होता जायेगा, शुभ घोषित होता जायेगा। सत्संग रूपी सहदेव ने ‘मणिपुष्पक’ नामक शंख बजाया। मनीषियों ने प्रत्येक श्वास को बहुमूल्य मणि की संज्ञा दी है - ‘हीरा जैसी स्वाँस बातों में बीती जाय।’ (‘बिन्दु’) एक सत्संग तो वह है जो आप सत्पुरुषों की वाणी से सुनते हैं; किन्तु यथार्थ सत्संग आन्तरिक है। श्री कृष्ण के अनुसार आत्मा ही सत्य है, सनातन है। चित्त सब ओर से सिमटकर आत्मा की संगत करने लगे, यही वास्तविक सत्संग है। यह सत्संग चिन्तन, ध्यान और समाधि के अभ्यास से सम्पन्न होता है। ज्यों-ज्यों सत्य के सान्निध्य में सुरत टिकती जायेगी, त्यों-त्यों एक-एक श्वास पर नियंत्रण मिलता जायेगा, मन सहित इन्द्रियों का निरोध होता जायेगा। जिस दिन सर्वथा निरोध होगा, वस्तु प्राप्त हो जायेगी। वाद्य यन्त्रों की तरह चित्त का आत्मा के स्वर-में-स्वर मिलाकर संगत करना ही सत्संग है। बाह्यमणि कठोर है, किन्तु श्वास मणि पुष्प से भी कोमल है। पुष्प तो विकसित होने या टूटने पर कुम्हलाता है; किन्तु आप अगले श्वास तक जीवित रहने की गारण्टी नहीं दे सकते। किन्तु सत्संग सफल होने पर प्रत्येक श्वास पर नियंत्रण दिलाकर परम लक्ष्य की प्राप्ति करा देता है। इसके आगे पाण्डवों की कोई घोषणा नहीं है; किन्तु प्रत्येक साधन कुछ-न-कुछ निर्मलता के पथ में दूरी तय कराता है। आगे कहते हैं-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज